फैली खेतों में दूर तलक मख़मल की कोमल हरियाली, लिपटीं जिससे रवि की किरणें चाँदी की सी उजली जाली ! तिनकों के हरे हरे तन पर हिल हरित रुधिर है रहा झलक, श्यामल भू तल पर झुका हुआ नभ का चिर निर्मल नील फलक।
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छोड़ द्रुमों की मृदु छाया – सुमित्रानंदन पंत
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन? भूल अभी से इस जग को! तज कर तरल तरंगों को, इन्द्रधनुष के रंगों को,
पर्वत प्रदेश – सुमित्रानंदन पंत
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश। मेखलाकर पर्वत अपार अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़, अवलोक रहा है बार-बार नीचे जल में निज महाकार, -जिसके चरणों में पला ताल दर्पण सा फैला है विशाल!
काले बादल – सुमित्रानंदन पंत
सुनता हूँ, मैंने भी देखा, काले बादल में रहती चाँदी की रेखा! काले बादल जाति द्वेष के, काले बादल विश्व क्लेश के, काले बादल उठते पथ पर नव स्वतंत्रता के प्रवेश के! सुनता आया हूँ, है देखा, काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा
जग-जीवन – सुमित्रानंदन पंत
जग-जीवन में जो चिर महान, सौंदर्य-पूर्ण औ सत्य-प्राण, मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ! जिसमें मानव-हित हो समान! जिससे जीवन में मिले शक्ति, छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति; मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
कुसुम चयन – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जो न बने वे विमल लसे विधु-मौलि मौलि पर। जो न बने रमणीय सज, रमा-रमण कलेवर। बर बृन्दारक बृन्द पूज जो बने न बन्दित। जो न सके अभिनन्दनीय को कर अभिनन्दित। जो विमुग्धा कर हुए वे न बन मंजुल-माला। जो उनसे सौरभित प्रेम का बना न प्याला। कर के नृप-कुल-तिलक क्रीट-रत्नों को रंजित। कर न सके जो कलित-कुसुम-कुल महिमा व्यंजित। जो न सुबासित हुआ तेल उनसे वह आला। जिसने सुखमय व्यथित-जीव-जीवन कर डाला।
अविनय – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
ढाल पसीना जिसे बड़े प्यारों से पाला। जिसके तन में सींच सींच जीवन-रस डाला। सुअंकुरित अवलोक जिसे फूला न समाया। पा करके पल्लवित जिसे पुलकित हो आया। वह पौधा यदि न सुफल फले तो कदापि न कुफल फले। अवलोक निराशा का बदन नीर न आँखों से ढले।1।
भोर का उठना – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
भोर का उठना है उपकारी। जीवन-तरु जिससे पाता है हरियाली अति प्यारी। पा अनुपम पानिप तन बनता है बल-संचय-कारी। पुलकित, कुसुमित, सुरभित, हो जाती है जन-उर-क्यारी। लालिमा ज्यों नभ में छाती है। त्यों ही एक अनूठी धारा अवनी पर आती है। परम-रुचिरता-सहित सुधा-बृंदों सी बरसाती है। रसमय, मुदमय, मधुर नादमय सब ही दिशा बनाती है। तृण, वीरुधा, तरु, लता, वेलि को प्रतिपल पुलकाती है। बन उपवन में रुचिर मनोहर कुसुम-चय खिलाती है। प्रान्तर-नगर-ग्राम-गृह-पुर में सजीवता लाती है। उर में उमग पुलक तन में दुति दृग में उपजाती है। सदा भोर उठने वालों की यह प्यारी थाती है। यह न्यारी-निधि बड़े भाग वाली जनता पाती है।
सुशिक्षा-सोपान – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जी लगा पोथी अपनी पढ़ो। केवल पढ़ो न पोथी ही को, मेरे प्यारे कढ़ो। कभी कुपथ में पाँव न डालो, सुपथ ओर ही बढ़ो। भावों की ऊँची चोटी पर बड़े चाव से चढ़ो। सुमति-खंजरी को मानवता-रुचि-चाम से मढ़ो। बन सोनार सम परम-मनोहर पर-हित गहने गढ़ो।1।
मानव – सुमित्रानंदन पंत
सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर, मानव! तुम सबसे सुन्दरतम, निर्मित सबकी तिल-सुषमा से तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम! यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन, मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग, न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,


