जिसके पीछे पागल होकर मैं दौडा अपने जीवन-भर, जब मृगजल में परिवर्तित हो मुझ पर मेरा अरमान हंसा! तब रोक न पाया मैं आंसू! जिसमें अपने प्राणों को भर कर देना चाहा अजर-अमर, जब विस्मृति के पीछे छिपकर मुझ पर वह मेरा गान हंसा! तब रोक न पाया मैं आंसू!
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तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए – हरिवंशराय बच्चन
तुम गा दो, मेरा गान अमर हो जाए! मेरे वर्ण-वर्ण विश्रंखल, चरण-चरण भरमाए, गूंज-गूंज कर मिटने वाले मैनें गीत बनाये;
आज तुम मेरे लिये हो – हरिवंशराय बच्चन
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो । मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब, मैं समय के शाप से डरता नहीं अब, आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।
मनुष्य की मूर्ति – हरिवंशराय बच्चन
देवलोक से मिट्टी लाकर मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता! रचता मुख जिससे निकली हो वेद-उपनिषद की वर वाणी, काव्य-माधुरी, राग-रागिनी जग-जीवन के हित कल्याणी, हिंस्र जन्तु के दाढ़ युक्त जबड़े-सा पर वह मुख बन जाता! देवलोक से मिट्टी लाकर मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!
उस पार न जाने क्या होगा – हरिवंशराय बच्चन
इस पार, प्रिये मधु है तुम हो, उस पार न जाने क्या होगा! यह चाँद उदित होकर नभ में कुछ ताप मिटाता जीवन का, लहरा लहरा यह शाखाएँ कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ हँसकर कहती हैं मगन रहो,
रीढ़ की हड्डी – हरिवंशराय बच्चन
मैं हूँ उनके साथ,खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़ कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार कभी नही जो सह सकते हैं, शीश नवाकर अत्याचार एक अकेले हों, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़ मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़
हिंया नहीं कोऊ हमार – हरिवंशराय बच्चन
अस्त रवि ललौंछ रंजित पच्छिमी नभ; क्षितिज से ऊपर उठा सिर चल कर के एक तारा मद-आभा उदासी जैसे दबाए हुए अंदर आर्द्र नयनों मुस्कराता, एक सूने पथ पर चुपचाप एकाकी चले जाते मुसाफिर को कि जैसे कर रहा हो कुछ इशारा
तुम्हारा फ़ोन आया है – कुमार विश्वास
अजब सी ऊब शामिल हो गयी है रोज़ जीने में पलों को दिन में, दिन को काट कर जीना महीने में महज मायूसियाँ जगती हैं अब कैसी भी आहट पर हज़ारों उलझनों के घोंसले लटके हैं चैखट पर अचानक सब की सब ये चुप्पियाँ इक साथ पिघली हैं उम्मीदें सब सिमट कर हाथ बन जाने को मचली हैं मेरे कमरे के सन्नाटे ने अंगड़ाई सी तोड़ी है मेरी ख़ामोशियों ने एक नग़मा गुनगुनाया है तुम्हारा फ़ोन आया है, तुम्हारा फ़ोन आया है
क्यों जीता हूँ – हरिवंशराय बच्चन
आधे से ज़्यादा जीवन जी चुकने पर मैं सोच रहा हूँ- क्यों जीता हूँ? लेकिन एक सवाल अहम इससे भी ज़्यादा, क्यों मैं ऎसा सोच रहा हूँ?
कौन मिलनातुर नहीं है ? – हरिवंशराय बच्चन
आक्षितिज फैली हुई मिट्टी निरन्तर पूछती है, कब कटेगा, बोल, तेरी चेतना का शाप, और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा शान्त ? कौन मिलनातुर नहीं है ?


