सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
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सिपाही – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ, ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्यों ही, कभी न मोह हुआ। जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैने पहचाना, सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना। मसि की तो क्या बात? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है, जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है? इतिहासों में अमर रहूँ, है एसी मृत्यु नहीं मेरी, विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी?
देखो माई हलधर गिरधर जोरी – सूरदास
देखो माई हलधर गिरधर जोरी ॥ हलधर हल मुसल कलधारे गिरधर छत्र धरोरी ॥१॥ हलधर ओढे पित पितांबर गिरधर पीत पिछोरी॥२॥ हलधर केहे मेरी कारी कामरी गीरधरने ली चोरी॥३॥ सूरदास प्रभुकी छबि निरखे भाग बडे जीन कोरी॥४॥
मेरे नगपति! मेरे विशाल – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल!
नेक चलो नंदरानी उहां लगी – सूरदास
नेक चलो नंदरानी उहां लगी नेक चलो नंदारानी ॥ देखो आपने सुतकी करनी दूध मिलावत पानी ॥ हमरे शिरकी नयी चुनरिया ले गोरसमें सानी ॥ हमरे उनके करन बाद है हम देखावत जबानी ॥
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने
ऐसे भक्ति मोहे भावे उद्धवजी – सूरदास
ऐसे भक्ति मोहे भावे उद्धवजी ऐसी भक्ति । सरवस त्याग मगन होय नाचे जनम करम गुन गावे ॥ कथनी कथे निरंतर मेरी चरन कमल चित लावे ॥ मुख मुरली नयन जलधारा करसे ताल बजावे ॥
जागो पीतम प्यारा लाल – सूरदास
जागो पीतम प्यारा लाल तुम जागो बन्सिवाला । तुमसे मेरो मन लाग रह्यो तुम जागो मुरलीवाला ॥ बनकी चिडीयां चौं चौं बोले पंछी करे पुकारा । रजनि बित और भोर भयो है गरगर खुल्या कमरा ॥
साल मुबारक! – कुमार विश्वास
उम्र बाँटने वाले उस ठरकी बूढ़े ने दिन लपेट कर भेज दिए हैं नए कैलेंडर की चादर में इनमें कुछ तो ऐसे होंगे जो हम दोनों के साझे हों। सब से पहले उन्हें छाँट कर गिन तो लूँ मैं!
शोक की संतान – रामधारी सिंह ‘दिनकर’
हृदय छोटा हो, तो शोक वहां नहीं समाएगा। और दर्द दस्तक दिये बिना दरवाजे से लौट जाएगा। टीस उसे उठती है, जिसका भाग्य खुलता है। वेदना गोद में उठाकर सबको निहाल नहीं करती,




