प्रवाह – रुचिका मान ‘रूह’ (अतिथि लेखक)

एक दिन इस्पात के पंखों पर सवार हो एक आवारा झोंका बह निकला- चटक मन-मोदकों से सामंजस्य बनाने |

अन्धा कौन ? – विकास कुमार

पार्लियामेंट स्ट्रीट का वो मंजर सीने मेँ घोँपता जैसे एक  खंजर, हर एक था जैसे वहाँ बैरिस्टर पर दिलोँ मेँ कहाँ था उनके मानवता का वो फैक्टर , तभी अचानक गुजरी वहाँ से एक वृध्धा, हाथ मेँ था जिसके लकडी का एक डंडा,

उस रात तुम आई थीं प्रिये – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

जब घड़ी की टक टक सुनाई दे रही थी घोर तम के शुनशान अंधेरे में जुगनू उस रात के तम से लड़ रहे थे और अपनी जीत का जश्न मना रहे थे उस रात तुम आई थीं प्रिये

तुम मत भूलना उनको – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

तुम मत भूलना उनको, वतन पर फक्र था , जिनको मिलाकर धूल में उनको, लगाकर माटी का चंदन,

दुआ करो – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

दुआ करो जल सके दिया हो उजाला रोशन हो हर कोना

आग की फसल – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

तुम अधूरे मैं अधूरा दिन अधूरे रात अधूरी भावनाएँ जो बह रहीं हैं उठ रहीं तरंग अधूरी

अधूरे से हम – विकास कुमार (अतिथि लेखक)

तुम अधूरे मैं अधूरा दिन अधूरे रात अधूरी भावनाएँ जो बह रहीं हैं उठ रहीं तरंग अधूरी

गीत –  ज्ञान प्रकाश सिंह

आज सूर्य की अंतिम किरणें , दुर्बल क्षीण मलिन अलसाई , आज नहीं निर्झर के जल में , संध्या रूप निरखने आई ।

हे सागर वासी घन काले ! –  ज्ञान प्रकाश सिंह

जब ज्वालाओं के जाल फेंकते,भुवन भास्कर धरती पर तब ग्रीष्मकाल की भरी दुपहरी,आग बरसती धरती पर जीव जंतु बेहाल ताप से , चैन नहीं मिलता घर बाहर ताक रहे सब सूने नभ को मन में आस तुम्हारी पाले।

मधुकर ! तब तुम गुंजन करना –  ज्ञान प्रकाश सिंह

भँवरा ! ये दिन कठिन हैं  पर फिर वसंत ऋतु आएगी, नवकुसुम खिलेंगे उपवन में, नवगीत कोकिला गाएगी।