सिमटा पंख साँझ की लाली जा बैठी तरू अब शिखरों पर ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख झरते चंचल स्वर्णिम निझर! ज्योति स्थंभ-सा धँस सरिता में सूर्य क्षितीज पर होता ओझल बृहद जिह्म ओझल केंचुल-सा लगता चितकबरा गंगाजल! धूपछाँह के रंग की रेती अनिल ऊर्मियों से सर्पांकित नील लहरियों में लोरित
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बापू के प्रति – सुमित्रानंदन पंत
तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन, हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन, तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल, हे चिर पुराण, हे चिर नवीन! तुम पूर्ण इकाई जीवन की, जिसमें असार भव-शून्य लीन; आधार अमर, होगी जिस पर
अँधियाली घाटी में – सुमित्रानंदन पंत
अँधियाली घाटी में सहसा हरित स्फुलिंग सदृश फूटा वह! वह उड़ता दीपक निशीथ का,-- तारा-सा आकर टूटा वह! जीवन के इस अन्धकार में मानव-आत्मा का प्रकाश-कण जग सहसा, ज्योतित कर देता मानस के चिर गुह्य कुंज-वन!
मिट्टी का गहरा अंधकार – सुमित्रानंदन पंत
मिट्टी का गहरा अंधकार डूबा है उसमें एक बीज,-- वह खो न गया, मिट्टी न बना, कोदों, सरसों से क्षुद्र चीज! उस छोटे उर में छिपे हुए हैं डाल-पात औ’ स्कन्ध-मूल,
ग्राम श्री – सुमित्रानंदन पंत
फैली खेतों में दूर तलक मख़मल की कोमल हरियाली, लिपटीं जिससे रवि की किरणें चाँदी की सी उजली जाली ! तिनकों के हरे हरे तन पर हिल हरित रुधिर है रहा झलक, श्यामल भू तल पर झुका हुआ नभ का चिर निर्मल नील फलक।
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया – सुमित्रानंदन पंत
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया, बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन? भूल अभी से इस जग को! तज कर तरल तरंगों को, इन्द्रधनुष के रंगों को,
पर्वत प्रदेश – सुमित्रानंदन पंत
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश, पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश। मेखलाकर पर्वत अपार अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़, अवलोक रहा है बार-बार नीचे जल में निज महाकार, -जिसके चरणों में पला ताल दर्पण सा फैला है विशाल!
काले बादल – सुमित्रानंदन पंत
सुनता हूँ, मैंने भी देखा, काले बादल में रहती चाँदी की रेखा! काले बादल जाति द्वेष के, काले बादल विश्व क्लेश के, काले बादल उठते पथ पर नव स्वतंत्रता के प्रवेश के! सुनता आया हूँ, है देखा, काले बादल में हँसती चाँदी की रेखा
जग-जीवन – सुमित्रानंदन पंत
जग-जीवन में जो चिर महान, सौंदर्य-पूर्ण औ सत्य-प्राण, मैं उसका प्रेमी बनूँ, नाथ! जिसमें मानव-हित हो समान! जिससे जीवन में मिले शक्ति, छूटे भय, संशय, अंध-भक्ति; मैं वह प्रकाश बन सकूँ, नाथ!
मानव – सुमित्रानंदन पंत
सुन्दर हैं विहग, सुमन सुन्दर, मानव! तुम सबसे सुन्दरतम, निर्मित सबकी तिल-सुषमा से तुम निखिल सृष्टि में चिर निरुपम! यौवन-ज्वाला से वेष्टित तन, मृदु-त्वच, सौन्दर्य-प्ररोह अंग, न्योछावर जिन पर निखिल प्रकृति,


