नज़राना – कैफ़ि आज़मी

तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो  और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा  इसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा चला जाऊँगा  रास्ता भूल गया या यहाँ मंज़िल है मेरी  कोई लाया है या ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं  कहते हैं हुस्न कि नज़रें भी हसीं होती हैं  मैं भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं 

दो-पहर – कैफ़ि आज़मी

ये जीत-हार तो इस दौर का मुक्द्दर है ये दौर जो के पुराना नही नया भी नहीं ये दौर जो सज़ा भी नही जज़ा भी नहीं ये दौर जिसका बा-जहिर कोइ खुदा भी नहीं तुम्हारी जीत अहम है ना मेरी हार अहम के इब्तिदा भी नहीं है ये इन्तेहा भी नहीं शुरु मारका-ए-जान अभी हुआ भी नहीं शुरु तो ये हंगाम-ए-फ़ैसला भी नहीं

दायरा – कैफ़ि आज़मी

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे  फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ  बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को  इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ  रोज़ बसते हैं कई शहर नये  रोज़ धरती में समा जाते हैं  ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह  वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं 

दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर – कैफ़ि आज़मी

दस्तूर[1] क्या ये शहरे-सितमगर[2] के हो गए । जो सर उठा के निकले थे बे सर के हो गए । ये शहर तो है आप का, आवाज़ किस की थी देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए ।

तुम परेशां न हो – कैफ़ि आज़मी

तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो और कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा इसी कूचे में जहां चांद उगा करते थे शब-ए-तारीक गुज़ारूंगा चला जाऊंगा रास्ता भूल गया या यहां मंज़िल है मेरी कोई लाया है या ख़ुद आया हूं मालूम नहीं कहते हैं कि नज़रें भी हसीं होती हैं मैं भी कुछ लाया हूं क्या लाया मालूम नहीं

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो – कैफ़ि आज़मी

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो  क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो  आँखों में नमी हँसी लबों पर  क्या हाल है क्या दिखा रहे हो  बन जायेंगे ज़हर पीते पीते  ये अश्क जो पीते जा रहे हो 

यादे-ग़ज़ालचश्मां – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

यादे-ग़ज़ालचश्मां, ज़िक्रे-समनइज़ारां जब चाहा कर लिया है कुंजे-क़फ़स बहारां  आंखों में दर्दमंदी, होंठों पे उज़्रख़्वाही जानाना-वार आई शामे-फ़िराक़े-यारां 

वो अहदे-ग़म – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

वो अहदे-ग़म की काहिशहा-ए-बेहासिल को क्या समझे जो उनकी मुख़्त्सर रूदाद भी सब्र-आज़मा समझे  यहां वाबस्तगी, वां बरहमी, क्या जानिये क्यों है न हम अपनी नज़र समझे, न हम उनकी अदा समझे 

बहार आई – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

बहार आई तो जैसे एक बार लौट आये हैं फिर अदम से वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे जो मिट के हर बार फिर जीये थे निखर गये हैं गुलाब सारे जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं

तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये तेरी राह में करते थे सर तलब सर-ए-राह-गुज़ार चले गये तेरी कज़ -अदाई से हार के शब-ए-इंतज़ार चली गई मेरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मेरे ग़म-गुसार चले गये