कर चले हम फ़िदा – कैफ़ि आज़मी

कर चले हम फ़िदा जानो-तन साथियो अब तुम्हारे हवाले वतन साथियो साँस थमती गई, नब्ज़ जमती गई फिर भी बढ़ते क़दम को न रुकने दिया कट गए सर हमारे तो कुछ ग़म नहीं सर हिमालय का हमने न झुकने दिया

खार-ओ-खस तो उठें, रास्ता तो चले – कैफ़ि आज़मी

खार-ओ-खस तो उठें, रास्ता तो चले मैं अगर थक गया, काफ़ला तो चले चांद, सूरज, बुजुर्गों के नक्श-ए-क़दम खैर बुझने दो उनको हवा तो चले हाकिम-ए-शहर, यह भी कोई शहर है मस्जिदें बंद हैं, मैकदा तो चले

नज़राना – कैफ़ि आज़मी

तुम परेशान न हो बाब-ए-करम वा न करो  और कुछ देर पुकारूँगा चला जाऊँगा  इसी कूचे में जहाँ चाँद उगा करते हैं शब-ए-तारीक गुज़ारूँगा चला जाऊँगा  रास्ता भूल गया या यहाँ मंज़िल है मेरी  कोई लाया है या ख़ुद आया हूँ मालूम नहीं  कहते हैं हुस्न कि नज़रें भी हसीं होती हैं  मैं भी कुछ लाया हूँ क्या लाया हूँ मालूम नहीं 

दो-पहर – कैफ़ि आज़मी

ये जीत-हार तो इस दौर का मुक्द्दर है ये दौर जो के पुराना नही नया भी नहीं ये दौर जो सज़ा भी नही जज़ा भी नहीं ये दौर जिसका बा-जहिर कोइ खुदा भी नहीं तुम्हारी जीत अहम है ना मेरी हार अहम के इब्तिदा भी नहीं है ये इन्तेहा भी नहीं शुरु मारका-ए-जान अभी हुआ भी नहीं शुरु तो ये हंगाम-ए-फ़ैसला भी नहीं

दायरा – कैफ़ि आज़मी

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे  फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ  बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को  इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ  रोज़ बसते हैं कई शहर नये  रोज़ धरती में समा जाते हैं  ज़लज़लों में थी ज़रा सी गिरह  वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं 

दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर – कैफ़ि आज़मी

दस्तूर[1] क्या ये शहरे-सितमगर[2] के हो गए । जो सर उठा के निकले थे बे सर के हो गए । ये शहर तो है आप का, आवाज़ किस की थी देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए ।

तुम परेशां न हो – कैफ़ि आज़मी

तुम परेशां न हो बाब-ए-करम-वा न करो और कुछ देर पुकारूंगा चला जाऊंगा इसी कूचे में जहां चांद उगा करते थे शब-ए-तारीक गुज़ारूंगा चला जाऊंगा रास्ता भूल गया या यहां मंज़िल है मेरी कोई लाया है या ख़ुद आया हूं मालूम नहीं कहते हैं कि नज़रें भी हसीं होती हैं मैं भी कुछ लाया हूं क्या लाया मालूम नहीं

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो – कैफ़ि आज़मी

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो  क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो  आँखों में नमी हँसी लबों पर  क्या हाल है क्या दिखा रहे हो  बन जायेंगे ज़हर पीते पीते  ये अश्क जो पीते जा रहे हो 

तुम – कैफ़ि आज़मी

शगुफ्तगी का लताफ़त का शाहकार हो तुम, फ़क़त बहार नहीं हासिल-ऐ-बहार हो तुम, जो इक फूल में है क़ैद वो गुलिस्तान हो, जो इक कली में है पिन्हाँ वो लाला-ज़ार हो तुम.

चरागाँ – कैफ़ि आज़मी

एक दो भी नहीं छब्बीस दिये एक इक करके जलाये मैंने इक दिया नाम का आज़ादी के उसने जलते हुये होठों से कहा चाहे जिस मुल्क से गेहूँ माँगो हाथ फैलाने की आज़ादी है