कुछ उलटी सीधी बातें – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

जला सब तेल दीया बुझ गया है अब जलेगा क्या। बना जब पेड़ उकठा काठ तब फूले फलेगा क्या।1। रहा जिसमें न दम जिसके लहू पर पड़ गया पाला। उसे पिटना पछड़ना ठोकरें खाना खलेगा क्या।2। भले ही बेटियाँ बहनें लुटें बरबाद हों बिगड़ें। कलेजा जब कि पत्थर बन गया है तब गलेगा क्या।3।

एक उकताया – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता। बिन कहे भी रहा नहीं जाता।1। बे तरह दुख रहा कलेजा है। दर्द अब तो सहा नहीं जाता।2। इन झड़ी बाँधा कर बरस जाते। आँसुओं में बहा नहीं जाता।3।

क्या होगा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

बहँक कर चाल उलटी चल कहो तो काम क्या होगा। बड़ों का मुँह चिढ़ा करके बता दो नाम क्या होगा।1। बही जी में नहीं जो बेकसों के प्यार की धारा। बता दो तो बदन चिकना व गोरा चाम क्या होगा।2। दुखी बेवों यतीमों की कभी सुधा जो नहीं ली तो। जामा किस काम आवेगी व यह धान धाम क्या होगा।3।

हमें नहीं चाहिए – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

आप रहे कोरा शरीर के बसन रँगावे। घर तज कर के घरबारी से भी बढ़ जावे। इस प्रकार का नहीं चाहिए हम को साधू। मन तो मूँड़ न सके मूँड़ को दौड़ मुड़ावे।1। मन का मोह न हरे, राल धान पर टपकावे। मुक्ति बहाने भूल भूलैयाँ बीच फँसावे। हमें चाहिए गुरू नहीं ऐसा अविवेकी। जो न लोक का रखे न तो परलोक बनावे।2।

हमें चाहिए – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कपड़े रँग कर जो न कपट का जाल बिछावे। तन पर जो न विभूति पेट के लिए लगावे। हमें चाहिए सच्चे जी वाला वह साधू। जाति देश जगहित कर जो निज जन्म बनाये।1। देशकाल को देख चले निजता नहिं खोवे। सार वस्तु को कभी पखंडों में न डुबोवे। हमें चाहिए समझ बूझ वाला वह पंडित। आँखें ऊँची रखे कूपमंडूक न होवे।2।

परिवर्तन – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

तिमिर तिरोहित हुए तिमिर-हर है दिखलाता। गत विभावरी हुए विभा बासर है पाता। टले मलिनता सकल दिशा है अमलिन होती। भगे तमीचर, नीरवता तमचुर-धवनि खोती। है वहाँ रुचिरता थीं जहाँ धाराएँ अरुचिर बहीं। कब परिवर्तन-मय जगत में परिवर्तन होता नहीं।1।

जीवन-मरण – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

पोर पोर में है भरी तोर मोर की ही बान मुँह चोर बने आन बान छोड़ बैठी है। कैसे भला बार बार मुँह की न खाते रहें सारी मरदानगी ही मुँह मोड़ बैठी है। हरिऔधा कोई कस कमर सताता क्यों न कायरता होड़ कर नाता जोड़ बैठी है। छूट चलती है आँख दोनों ही गयी है फूट हिन्दुओं में फूट आज पाँव तोड़ बैठी है।1।

विद्यालय – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

है विद्यालय वही जो परम मंगलमय हो। बरविचार आकलित अलौकिक कीर्ति निलय हो। भावुकता बर वदन सुविकसित जिससे होवे। जिसकी शुचिता प्रीति वेलि प्रति उर में बोवे। पर अतुलित बल जिससे बने जाति बुध्दि अति बलवती। बहु लोकोत्तर फल लाभ कर हो भारत भुवि फलवती।1।

उद्बोधन – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

वेदों की है न वह महिमा धर्म ध्वंस होता। आचारों का निपतन हुआ लुप्त जातीयता है। विप्रो खोलो नयन अब है आर्यता भी विपन्ना। शीलों की है मलिन प्रभुता सभ्यता वंचिता है।1। सच्चे भावों सहित जिन के राम ने पाँव पूजे। पाई धोके चरण जिन के कृष्ण ने अग्र पूजा। होते वांछा विवश इतने आज वे विप्र क्यों हैं। जिज्ञासू हो निकट जिन के बुध्द ने सिध्दि पाई।2।

पुष्पांजलि – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

राम चरित सरसिज मधुप पावन चरित नितान्त। जय तुलसी कवि कुल तिलक कविता कामिनि कान्त।1। सुरसरि धारा सी सरस पूत परम रमणीय। है तुलसी की कल्पना कल्पलता कमनीय।2।