ढाल पसीना जिसे बड़े प्यारों से पाला। जिसके तन में सींच सींच जीवन-रस डाला। सुअंकुरित अवलोक जिसे फूला न समाया। पा करके पल्लवित जिसे पुलकित हो आया। वह पौधा यदि न सुफल फले तो कदापि न कुफल फले। अवलोक निराशा का बदन नीर न आँखों से ढले।1।
Category: अयोध्या सिंह उपाध्याय “हरीऔध”
अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ (15 अप्रैल, 1865-16 मार्च, 1947) हिन्दी के एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार थे। हरिऔध जी का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के निजामाबाद नामक स्थान में हुआ। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्यावाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं। प्रिय प्रवास हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है और इसे मंगलाप्रसाद पुरस्कार प्राप्त हो चुका है। हरिऔध जी ने ठेठ हिंदी का ठाठ, अधखिला फूल, हिंदी भाषा और साहित्य का विकास आदि ग्रंथ-ग्रंथों की भी रचना की, किंतु मूलतः वे कवि ही थे उनके उल्लेखनीय ग्रंथों में शामिल हैं: –
प्रिय प्रवास , वैदेही वनवास , पारिजात , रस-कलश , चुभते चौपदे, चौखे चौपदे , ठेठ हिंदी का ठाठ, अध खिला फूल , रुक्मिणी परिणय , हिंदी भाषा और साहित्य का विकास | प्रिय प्रवास, हरिऔध जी का सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह हिंदी खड़ी बोली का प्रथम महाकाव्य है। श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ के शब्दों में हरिऔध जी का महत्व और अधिक स्पष्ट हो जाता है- ‘इनकी यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि ये हिंदी के सार्वभौम कवि हैं। खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं।
भोर का उठना – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
भोर का उठना है उपकारी। जीवन-तरु जिससे पाता है हरियाली अति प्यारी। पा अनुपम पानिप तन बनता है बल-संचय-कारी। पुलकित, कुसुमित, सुरभित, हो जाती है जन-उर-क्यारी। लालिमा ज्यों नभ में छाती है। त्यों ही एक अनूठी धारा अवनी पर आती है। परम-रुचिरता-सहित सुधा-बृंदों सी बरसाती है। रसमय, मुदमय, मधुर नादमय सब ही दिशा बनाती है। तृण, वीरुधा, तरु, लता, वेलि को प्रतिपल पुलकाती है। बन उपवन में रुचिर मनोहर कुसुम-चय खिलाती है। प्रान्तर-नगर-ग्राम-गृह-पुर में सजीवता लाती है। उर में उमग पुलक तन में दुति दृग में उपजाती है। सदा भोर उठने वालों की यह प्यारी थाती है। यह न्यारी-निधि बड़े भाग वाली जनता पाती है।
सुशिक्षा-सोपान – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जी लगा पोथी अपनी पढ़ो। केवल पढ़ो न पोथी ही को, मेरे प्यारे कढ़ो। कभी कुपथ में पाँव न डालो, सुपथ ओर ही बढ़ो। भावों की ऊँची चोटी पर बड़े चाव से चढ़ो। सुमति-खंजरी को मानवता-रुचि-चाम से मढ़ो। बन सोनार सम परम-मनोहर पर-हित गहने गढ़ो।1।
सेवा -1 – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जो मिठाई में सुधा से है अधिक। खा सके वह रस भरा मेवा नहीं। तो भला जग में जिये तो क्या जिये। की गयी जो जाति की सेवा नहीं।1। हो न जिसमें जातिहित का रंग कुछ। बात वह जी में ठनी तो क्या ठनी। हो सकी जब देश की सेवा नहीं। तब भला हमसे बनी तो क्या बनी।2।
सेवा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
देख पड़ी अनुराग-राग-रंजित रवितन में। छबि पाई भर विपुल-विभा नीलाभ-गगन में। बर-आभा कर दान ककुभ को दुति से दमकी। अन्तरिक्ष को चारु ज्योतिमयता दे चमकी। कर संक्रान्ति गिरि-सानु-सकल को कान्त दिखाई। शोभितकर तरुशिखा निराली-शोभा पाई। कलित बना कर कनक कलश को हुई कलित-तर। समधिक-धवलित सौधा-धाम कर बनी मनोहर।
समझ का फेर – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
है भरी कूट कूट कोर कसर। माँ बहन से करें न क्यों कुट्टी। लोग सहयोग कर सकें कैसे। है असहयोग से नहीं छुट्टी।1। मेल बेमेल जाति से करके। हम मिटाते कलंक टीके हैं। जाति है जा रही मिटी तो क्या। रंग में मस्त यूनिटी के हैं।2।
उलटी समझ – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जाति ममता मोल जो समझें नहीं। तो मिलों से हम करें मैला न मन। देश-हित का रंग न जो गाढ़ा चढ़ा। तो न डालें गाढ़ में गाढ़ा पहन।1। धूल झोंकें न जाति आँखों में। फाड़ देवें न लाज की चद्दर। दर बदर फिर न देश को कोसें। मूँद हित दर न दें पहन खद्दर।2।
चाहिए – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
राह पर उसको लगाना चाहिए। जाति सोती है जगाना चाहिए।1। हम रहेंगे यों बिगड़ते कब तलक। बात बिगड़ी अब बनाना चाहिए।2। खा चुके हैं आज तक मुँह की न कम। सब दिनों मुँह की न खाना चाहिए।3।
अपने दुखड़े – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
देश को जिस ने जगाया जगे सोने न दिया। आग घर घर में बुरी फूट को बोने न दिया।1। है वही बीर पिया दूध उसी ने माँ का। जाति को जिसने जिगर थाम के रोने न दिया।2। बन गये भोले बहुत, अपनी भलाई भूली। है इसी भूल ने अब तक भला होने न दिया।3।
दिल के फफोले -1 – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जिसे सूझ कर भी नहीं सूझ पाता। नहीं बात बिगड़ी हुई जो बनाता। फिसल कर सँभलना जिसे है न आता। नहीं पाँव उखड़ा हुआ जो जमाता। पड़ेगा सुखों का उसे क्यों न लाला। सदा ही सहेगा न वह क्यों कसाला।

