रक़ीब से – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

आ, के वाबस्तः हैं उस हुस्न की यादें तुझ से  जिसने इस दिल को परीखानः बना रखा था  जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने  दह्र को दह्र का अफ़साना बना रखा था  आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर  उसकी मदहोश जवानी ने इ’नायत की है  कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे उसी रा'नाई के  जिसकी इन आँखों ने बे-सूद इ’बादत की है

आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफी नहीं तोहमत-ए-इश्क़ पोशीदा काफी नहीं आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो दस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलो

निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले

हम बे-शहर बे-सहर ही सही – विकाश कुमार

हम बे-शहर बे-सहर ही सही, ज़िंदगी हमारी दोपहर ही सही दिल में वफ़ा का गुमान तो है, वैसे सफ़र बे-हमसफ़र ही सही

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं

ढाका से वापसी पर – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

हम केः ठहरे अजनबी इतनी मदारातों[1] के बाद  फिर बनेंगे आशना[2] कितनी मुलाक़ातों के बाद  कब नज़र में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार  ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद 

ख़ुर्शीद-ए-महशर की लौ – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो दूर कितने हैं ख़ुशियाँ मनाने के दिन खुल के हँसने के दिन गीत गाने के दिन प्यार करने के दिन दिल लगाने के दिन

अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है जो भी चल निकली है, वो बात कहाँ ठहरी है आज तक शैख़ के इकराम में जो शै थी हराम अब वही दुश्मने-दीं राहते-जाँ ठहरी है है ख़बर गर्म के फिरता है गुरेज़ाँ नासेह गुफ़्तगू आज सरे-कू-ए-बुताँ ठहरी है

कुछ बातें हैं… – विकाश कुमार

कुछ बातें हैं तुम कहो तो बता दूँ ‬ सब अच्छा कुछ बुरा भी जता दूँ बड़ी शिद्दत से पहुँचा हूँ मंज़िल पर कुछ याद आए तो घर का पता दूँ

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की बर्कतें थी शराबख़ाने की कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे जान देने की दिल लगाने की बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल उनसे जो बात थी बताने की