तट पर है तरुवर एकाकी, नौका है, सागर में, अंतरिक्ष में खग एकाकी, तारा है, अंबर में, भू पर वन, वारिधि पर बेड़े, नभ में उडु खग मेला, नर नारी से भरे जगत में कवि का हृदय अकेला!
Author: हरिवंशराय बच्चन
शहीद की माँ – हरिवंशराय बच्चन
इसी घर से एक दिन शहीद का जनाज़ा निकला था, तिरंगे में लिपटा, हज़ारों की भीड़ में। काँधा देने की होड़ में सैकड़ो के कुर्ते फटे थे, पुट्ठे छिले थे।
बहुत दिनों पर – हरिवंशराय बच्चन
मैं तो बहुत दिनों पर चेता । श्रम कर ऊबा श्रम कण डूबा सागर को खेना था मुझको रहा शिखर को खेता मैं तो बहुत दिनों पर चेता ।
आत्मदीप – हरिवंशराय बच्चन
मुझे न अपने से कुछ प्यार, मिट्टी का हूँ, छोटा दीपक, ज्योति चाहती, दुनिया जब तक, मेरी, जल-जल कर मैं उसको देने को तैयार पर यदि मेरी लौ के द्वार, दुनिया की आँखों को निद्रित, चकाचौध करते हों छिद्रित मुझे बुझा दे बुझ जाने से मुझे नहीं इंकार
चिड़िया – हरिवंशराय बच्चन
मैनें चिड़िया से कहा, मैं तुम पर एक कविता लिखना चाहता हूँ। चिड़िया नें मुझ से पूछा, 'तुम्हारे शब्दों में मेरे परों की रंगीनी है?' मैंने कहा, 'नहीं'। 'तुम्हारे शब्दों में मेरे कंठ का संगीत है?' 'नहीं।' 'तुम्हारे शब्दों में मेरे डैने की उड़ान है?' 'नहीं।' 'जान है?' 'नहीं।' 'तब तुम मुझ पर कविता क्या लिखोगे?' मैनें कहा, 'पर तुमसे मुझे प्यार है' चिड़िया बोली, 'प्यार का शब्दों से क्या सरोकार है?' एक अनुभव हुआ नया। मैं मौन हो गया!
आदर्श प्रेम – हरिवंशराय बच्चन
प्यार किसी को करना लेकिन कह कर उसे बताना क्या अपने को अर्पण करना पर और को अपनाना क्या गुण का ग्राहक बनना लेकिन गा कर उसे सुनाना क्या मन के कल्पित भावों से औरों को भ्रम में लाना क्या
आज फिर से – हरिवंशराय बच्चन
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ । है कंहा वह आग जो मुझको जलाए, है कंहा वह ज्वाल पास मेरे आए, रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ; आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
प्रतीक्षा – हरिवंशराय बच्चन
मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी प्रिय तुम आते तब क्या होता? मौन रात इस भान्ति कि जैसे, कोइ गत वीणा पर बज कर अभी अभी सोयी खोयी सी, सपनो में तारों पर सिर धर और दिशाओं से प्रतिध्वनियां जाग्रत सुधियों सी आती हैं कान तुम्हारी तान कहीं से यदि सुन पाते, तब क्या होता?
साजन आए, सावन आया – हरिवंशराय बच्चन
अब दिन बदले, घड़ियाँ बदलीं, साजन आए, सावन आया। धरती की जलती साँसों ने मेरी साँसों में ताप भरा, सरसी की छाती दरकी तो कर घाव गई मुझपर गहरा,
राष्ट्रिय ध्वज – हरिवंशराय बच्चन
नागाधिराज श्रृंग पर खडी हुई, समुद्र की तरंग पर अडी हुई, स्वदेश में जगह-जगह गडी हुई, अटल ध्वजा हरी,सफेद केसरी!




