नए ख़ाके – कैफ़ि आज़मी

नुक़ूश-ए-हसरत मिटा के उठना, ख़ुशी का परचम उड़ा के उठना
मिला के सर बैठना मुबारक तराना-ए-फ़त्ह गा के उठना

ये गुफ़्तुगू गुफ़्तुगू नहीं है बिगड़ने बनने का मरहला है
धड़क रहा है फ़ज़ा का सीना कि ज़िन्दगी का मुआमला है
ख़िज़ाँ रहे या बहार आए तुम्हारे हाथों में फ़ैसला है
न चैन बे-ताब बिजलियों को न मुतमइन कारवान-ए-शबनम
कभी शगूफ़ों के गर्म तेवर कभी गुलों का मिज़ाज बरहम
शगूफ़ा ओ गुल के इस तसादुम में गुल्सिताँ बन गया जहन्नम

सजा लें सब अपनी अपनी जन्नत अब ऐसे ख़ाके बना के उठना

ख़ज़ाना-ए-रंग-ओ-नूर तारीक रहगुज़ारों में लुट रहा है
उरूस-ए-गुल का ग़ुरूर-ए-इस्मत सियाहकारों में लुट रहा है
तमाम सरमाया-ए-लताफ़त ज़लील ख़ारों में लुट रहा है
घुटी घुटी हैं नुमू की साँसें छुटी छुटी नब्ज़-ए-गुलिस्ताँ है
हैं गुरसना फूल, तिश्ना ग़ुंचे, रुख़ों पे ज़र्दी लबों पे जाँ है
असीर हैं हम-सफ़ीर जब से ख़िज़ाँ चमन में रवाँ-दवाँ है

इस इन्तिशार-ए-चमन की सौगन्द बाब-ए-ज़िन्दाँ हिला के उठना

हयात-ए-गीती की आज बदली हुई निगाहें हैं इंक़िलाबी
उफ़ुक़ से किरनें उतर रही हैं बिखेरती नूर-ए-कामयाबी
नई सहर चाहती है ख़्वाबों की बज़्म में इज़्न-ए-बारयाबी
ये तीरगी का हुजूम कब तक ये यास का अज़दहाम कब तक
निफ़ाक़ ओ ग़फ़लत की आड़ ले कर जिएगा मुर्दा निज़ाम कब तक
रहेंगे हिन्दी असीर कब तक रहेगा भारत ग़ुलाम कब तक

गले का तौक़ आ रहे क़दम पर कुछ इस तरह तिलमिला के उठना

– कैफ़ि आज़मी

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