याद आते हैं फिर बहुत वे दिन
जो बड़ी मुश्किलों से बीते थे !
शाम अक्सर ही ठहर जाती थी
देर तक साथ गुनगुनाती थी !
हम बहुत ख़ुश थे, ख़ुशी के बिन भी
चाँदनी रात भर जगाती थी !
हमको मालूम है कि हम कैसे
आग को ओस जैसे पीते थे !
घर के होते हुए भी बेघर थे
रात हो, दिन हो, बस, हमीं भर थे !
डूब जाते थे मेघ भी जिसमें
हम उसी प्यास के समन्दर थे !
उन दिनों मरने की न थी फ़ुरसत,
हम तो कुछ इस तरह से जीते थे !
आते-जाते जो लोग मिलते थे
उनके मिलने में फूल खिलते थे !
ज़िन्दगी गंगा जैसी निर्मल थी,
जिसमें हम नाव जैसे चलते थे !
गंगा की ऊँची-नीची लहरों से
हम कभी आगे कभी पीछे थे !
कोई मौसम हो हम उदास न थे
तंग रहते थे, पर निराश न थे !
हमको अपना बना के छोड़े जो
हम किसी ऐसे दिल के पास न थे !
फूल यादों के जल गए कब के
हमने जो आँसुओं से सींचे थे ।?
– रमानाथ अवस्थी
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