मेरे कुछ सवाल हैं – ज़ाकिर खान

मेरे कुछ सवाल हैं जो सिर्फ़ क़यामत के रोज़ पूछूँगा तुमसे,
क्यूँकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस लायक नहीं हो तुम ।

मैं जानना चाहता हूँ कि रक़ीब के साथ भी चलते हुए,
शाम को यूँही बेख़याली में उसके साथ भी क्या हाथ टकरा जाता है तुम्हारा?
क्या अपनी छोटी ऊँगली से उसका भी हाथ थाम  लिया करती हो तुम,
वैसे ही जैसे मेरा थामा करती थी ?

क्या बता दीं  सारी बचपन की कहानियाँ तुमने उसको जैसे मुझको रात रात भर बैठ कर सुनायीं थीं तुमने?
क्या तुमने बताया उसको कि 30 के आगे की हिंदी की गिनती आती नहीं तुमको?
वो जो सारी तस्वीरें तुम्हारे पापा के साथ, तुम्हारी बहन के साथ तुम्हारी थीं,
जिनमे तुम मुझे बड़ी प्यारी लगती हो, क्या उसे भी दिखा दीं तुमने?

कि कुछ सवाल हैं जो सिर्फ़ क़यामत के रोज़ पूछूँगा तुमसे,
क्यूँकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस्स लायक नहीं हो तुम ।

कि मैं पूछना चाहता हूँ क्या जब वो भी घर छोड़ने आता है तुमको,
तो क्या सीढ़ियों पे आखें नीचे कर मेरी ही तरह उसके सामने भी माथा आगे कर देती हो तुम,
वैसे ही जैसे मेरे सामने किया करती थीं?

क्या सर्द रातों में बंद कमरों में वो भी मेरी ही तरह,
तुम्हारी नंगी पीठ पर अपनी उँगलियों से हर्फ़ दर हर्फ़ खुदका नाम गोदता है,
और तुम भी अक्षर-ब-अक्षर पहचानने की कोशिश करती हो
क्या जैसे मेरे साथ किया करती थी?

कि कुछ सवाल हैं जो सिर्फ़ क़यामत के रोज़ पूछूँगा तुमसे,
क्यूँकि उसके पहले तुम्हारी और मेरी बात हो सके इस्स लायक नहीं हो तुम ।

ज़ाकिर खान

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