हमें चाहिए – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

कपड़े रँग कर जो न कपट का जाल बिछावे। तन पर जो न विभूति पेट के लिए लगावे। हमें चाहिए सच्चे जी वाला वह साधू। जाति देश जगहित कर जो निज जन्म बनाये।1। देशकाल को देख चले निजता नहिं खोवे। सार वस्तु को कभी पखंडों में न डुबोवे। हमें चाहिए समझ बूझ वाला वह पंडित। आँखें ऊँची रखे कूपमंडूक न होवे।2।

परिवर्तन – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

तिमिर तिरोहित हुए तिमिर-हर है दिखलाता। गत विभावरी हुए विभा बासर है पाता। टले मलिनता सकल दिशा है अमलिन होती। भगे तमीचर, नीरवता तमचुर-धवनि खोती। है वहाँ रुचिरता थीं जहाँ धाराएँ अरुचिर बहीं। कब परिवर्तन-मय जगत में परिवर्तन होता नहीं।1।

जीवन-मरण – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

पोर पोर में है भरी तोर मोर की ही बान मुँह चोर बने आन बान छोड़ बैठी है। कैसे भला बार बार मुँह की न खाते रहें सारी मरदानगी ही मुँह मोड़ बैठी है। हरिऔधा कोई कस कमर सताता क्यों न कायरता होड़ कर नाता जोड़ बैठी है। छूट चलती है आँख दोनों ही गयी है फूट हिन्दुओं में फूट आज पाँव तोड़ बैठी है।1।

चींटी – सुमित्रानंदन पंत

चींटी को देखा? वह सरल, विरल, काली रेखा तम के तागे सी जो हिल-डुल, चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल, यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।

विद्यालय – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

है विद्यालय वही जो परम मंगलमय हो। बरविचार आकलित अलौकिक कीर्ति निलय हो। भावुकता बर वदन सुविकसित जिससे होवे। जिसकी शुचिता प्रीति वेलि प्रति उर में बोवे। पर अतुलित बल जिससे बने जाति बुध्दि अति बलवती। बहु लोकोत्तर फल लाभ कर हो भारत भुवि फलवती।1।

विजय – सुमित्रानंदन पंत

मैं चिर श्रद्धा लेकर आई  वह साध बनी प्रिय परिचय में,  मैं भक्ति हृदय में भर लाई,  वह प्रीति बनी उर परिणय में।  जिज्ञासा से था आकुल मन  वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,  विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण  आधार पा गई निश्चय मैं ! 

उद्बोधन – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

वेदों की है न वह महिमा धर्म ध्वंस होता। आचारों का निपतन हुआ लुप्त जातीयता है। विप्रो खोलो नयन अब है आर्यता भी विपन्ना। शीलों की है मलिन प्रभुता सभ्यता वंचिता है।1। सच्चे भावों सहित जिन के राम ने पाँव पूजे। पाई धोके चरण जिन के कृष्ण ने अग्र पूजा। होते वांछा विवश इतने आज वे विप्र क्यों हैं। जिज्ञासू हो निकट जिन के बुध्द ने सिध्दि पाई।2।

गंगा – सुमित्रानंदन पंत

निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय!-- जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल,--  गत आदर्शों का अभिभव ही मानव आत्मा की जय, अत: पराजय आज तुम्हारी जय से चिर लोकोज्वल!

पुष्पांजलि – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’

राम चरित सरसिज मधुप पावन चरित नितान्त। जय तुलसी कवि कुल तिलक कविता कामिनि कान्त।1। सुरसरि धारा सी सरस पूत परम रमणीय। है तुलसी की कल्पना कल्पलता कमनीय।2।

याद – सुमित्रानंदन पंत

बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर, मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर! वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर, नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!