इतने मत उन्‍मत्‍त बनो – हरिवंशराय बच्चन

जीवन मधुशाला से मधु पी बनकर तन-मन-मतवाला, गीत सुनाने लगा झुमकर चुम-चुमकर मैं प्‍याला- शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह, इतने मत उन्‍मत्‍त बनो। इतने मत संतप्‍त बनो।

त्राहि त्राहि कर उठता जीवन – हरिवंशराय बच्चन

जब रजनी के सूने क्षण में, तन-मन के एकाकीपन में कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता, त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

मैं कल रात नहीं रोया था – हरिवंशराय बच्चन

दुख सब जीवन के विस्मृत कर, तेरे वक्षस्थल पर सिर धर, तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था! मैं कल रात नहीं रोया था!

आत्‍मपरिचय – हरिवंशराय बच्चन

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ; कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ – हरिवंशराय बच्चन

सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुख झेले, दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? – हरिवंशराय बच्चन

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था?

लो दिन बीता लो रात गयी – हरिवंशराय बच्चन

सूरज ढल कर पच्छिम पंहुचा, डूबा, संध्या आई, छाई, सौ संध्या सी वह संध्या थी, क्यों उठते-उठते सोचा था दिन में होगी कुछ बात नई लो दिन बीता, लो रात गई

क्या है मेरी बारी में – हरिवंशराय बच्चन

जिसे सींचना था मधुजल से सींचा खारे पानी से, नहीं उपजता कुछ भी ऐसी विधि से जीवन-क्यारी में। क्या है मेरी बारी में।

कोई पार नदी के गाता – हरिवंशराय बच्चन

भंग निशा की नीरवता कर, इस देहाती गाने का स्वर, ककड़ी के खेतों से उठकर,  आता जमुना पर लहराता! कोई पार नदी के गाता!

नीड़ का निर्माण – हरिवंशराय बच्चन

नीड़ का निर्माण फिर-फिर, नेह का आह्वान फिर-फिर! वह उठी आँधी कि नभ में छा गया सहसा अँधेरा, धूलि धूसर बादलों ने भूमि को इस भाँति घेरा,