जीवन की ढलने लगी सांझ – अटल बिहारी वाजपेयी

जीवन की ढलने लगी सांझ उमर घट गई डगर कट गई जीवन की ढलने लगी सांझ।

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ  – अटल बिहारी वाजपेयी

न मैं चुप हूँ न गाता हूँ  सवेरा है मगर पूरब दिशा में  घिर रहे बादल  रूई से धुंधलके में  मील के पत्थर पड़े घायल  ठिठके पाँव  ओझल गाँव 

तुम तूफान समझ पाओगे – हरिवंशराय बच्चन

गीले बादल, पीले रजकण, सूखे पत्ते, रूखे तृण घन लेकर चलता करता 'हरहर'--इसका गान समझ पाओगे? तुम तूफान समझ पाओगे?

स्वप्न था मेरा भयंकर – हरिवंशराय बच्चन

रात का-सा था अंधेरा, बादलों का था न डेरा, किन्तु फिर भी चन्द्र-तारों से हुआ था हीन अम्बर! स्वप्न था मेरा भयंकर!

इतने मत उन्‍मत्‍त बनो – हरिवंशराय बच्चन

जीवन मधुशाला से मधु पी बनकर तन-मन-मतवाला, गीत सुनाने लगा झुमकर चुम-चुमकर मैं प्‍याला- शीश हिलाकर दुनिया बोली, पृथ्‍वी पर हो चुका बहुत यह, इतने मत उन्‍मत्‍त बनो। इतने मत संतप्‍त बनो।

त्राहि त्राहि कर उठता जीवन – हरिवंशराय बच्चन

जब रजनी के सूने क्षण में, तन-मन के एकाकीपन में कवि अपनी विव्हल वाणी से अपना व्याकुल मन बहलाता, त्राहि, त्राहि कर उठता जीवन!

मैं कल रात नहीं रोया था – हरिवंशराय बच्चन

दुख सब जीवन के विस्मृत कर, तेरे वक्षस्थल पर सिर धर, तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था! मैं कल रात नहीं रोया था!

आत्‍मपरिचय – हरिवंशराय बच्चन

मैं जग-जीवन का भार लिए फिरता हूँ, फिर भी जीवन में प्‍यार लिए फिरता हूँ; कर दिया किसी ने झंकृत जिनको छूकर मैं सासों के दो तार लिए फिरता हूँ!

ऐसे मैं मन बहलाता हूँ – हरिवंशराय बच्चन

सोचा करता बैठ अकेले, गत जीवन के सुख-दुख झेले, दंशनकारी सुधियों से मैं उर के छाले सहलाता हूँ! ऐसे मैं मन बहलाता हूँ!

क्षण भर को क्यों प्यार किया था? – हरिवंशराय बच्चन

अर्द्ध रात्रि में सहसा उठकर, पलक संपुटों में मदिरा भर तुमने क्यों मेरे चरणों में अपना तन-मन वार दिया था? क्षण भर को क्यों प्यार किया था?