ताज – सुमित्रानंदन पंत

हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?  जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!  संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन,  नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन? 

तितली – सुमित्रानंदन पंत

नीली, पीली औ’ चटकीली पंखों की प्रिय पँखड़ियाँ खोल, प्रिय तिली! फूल-सी ही फूली तुम किस सुख में हो रही डोल? चाँदी-सा फैला है प्रकाश, चंचल अंचल-सा मलयानिल, है दमक रही दोपहरी में

सन्ध्या – सुमित्रानंदन पंत

कहो, तुम रूपसि कौन? व्योम से उतर रही चुपचाप छिपी निज छाया-छबि में आप, सुनहला फैला केश-कलाप,-- मधुर, मंथर, मृदु, मौन! मूँद अधरों में मधुपालाप

द्वाभा के एकाकी प्रेमी – सुमित्रानंदन पंत

द्वाभा के एकाकी प्रेमी, नीरव दिगन्त के शब्द मौन, रवि के जाते, स्थल पर आते कहते तुम तम से चमक--कौन? सन्ध्या के सोने के नभ पर तुम उज्ज्वल हीरक सदृश जड़े, उदयाचल पर दीखते प्रात

खोलो, मुख से घूँघट खोलो – सुमित्रानंदन पंत

खोलो, मुख से घूँघट खोलो, हे चिर अवगुंठनमयि, बोलो! क्या तुम केवल चिर-अवगुंठन, अथवा भीतर जीवन-कम्पन? कल्पना मात्र मृदु देह-लता, पा ऊर्ध्व ब्रह्म, माया विनता! है स्पृश्य, स्पर्श का नहीं पता, है दृश्य, दृष्टि पर सके बता!

चींटी – सुमित्रानंदन पंत

चींटी को देखा? वह सरल, विरल, काली रेखा तम के तागे सी जो हिल-डुल, चलती लघु पद पल-पल मिल-जुल, यह है पिपीलिका पाँति! देखो ना, किस भाँति काम करती वह सतत, कन-कन कनके चुनती अविरत।

विजय – सुमित्रानंदन पंत

मैं चिर श्रद्धा लेकर आई  वह साध बनी प्रिय परिचय में,  मैं भक्ति हृदय में भर लाई,  वह प्रीति बनी उर परिणय में।  जिज्ञासा से था आकुल मन  वह मिटी, हुई कब तन्मय मैं,  विश्वास माँगती थी प्रतिक्षण  आधार पा गई निश्चय मैं ! 

गंगा – सुमित्रानंदन पंत

निर्वाणोन्मुख आदर्शों के अंतिम दीप शिखोदय!-- जिनकी ज्योति छटा के क्षण से प्लावित आज दिगंचल,--  गत आदर्शों का अभिभव ही मानव आत्मा की जय, अत: पराजय आज तुम्हारी जय से चिर लोकोज्वल!

याद – सुमित्रानंदन पंत

बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर, मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर! वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर, नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!

वायु के प्रति – सुमित्रानंदन पंत

प्राण! तुम लघु लघु गात!  नील नभ के निकुंज में लीन,  नित्य नीरव, नि:संग नवीन,  निखिल छवि की छवि! तुम छवि हीन  अप्सरी-सी अज्ञात!