याद – सुमित्रानंदन पंत

बिदा हो गई साँझ, विनत मुख पर झीना आँचल धर, मेरे एकाकी आँगन में मौन मधुर स्मृतियाँ भर! वह केसरी दुकूल अभी भी फहरा रहा क्षितिज पर, नव असाढ़ के मेघों से घिर रहा बराबर अंबर!

वायु के प्रति – सुमित्रानंदन पंत

प्राण! तुम लघु लघु गात!  नील नभ के निकुंज में लीन,  नित्य नीरव, नि:संग नवीन,  निखिल छवि की छवि! तुम छवि हीन  अप्सरी-सी अज्ञात! 

घंटा – सुमित्रानंदन पंत

नभ की है उस नीली चुप्पी पर  घंटा है एक टंगा सुन्दर,  जो घडी घडी मन के भीतर  कुछ कहता रहता बज बज कर।  परियों के बच्चों से प्रियतर,  फैला कोमल ध्वनियों के पर  कानों के भीतर उतर उतर 

लहरों का गीत – सुमित्रानंदन पंत

अपने ही सुख से चिर चंचल हम खिल खिल पडती हैं प्रतिपल, जीवन के फेनिल मोती को ले ले चल करतल में टलमल!

सांध्य वंदना – सुमित्रानंदन पंत

जीवन का श्रम ताप हरो हे! सुख सुषुमा के मधुर स्वर्ण हे! सूने जग गृह द्वार भरो हे! लौटे गृह सब श्रान्त चराचर नीरव, तरु अधरों पर मर्मर, करुणानत निज कर पल्लव से विश्व नीड प्रच्छाय करो हे!

जग के उर्वर-आँगन में – सुमित्रानंदन पंत

जग के उर्वर-आँगन में बरसो ज्योतिर्मय जीवन! बरसो लघु-लघु तृण, तरु पर हे चिर-अव्यय, चिर-नूतन!

श्री सूर्यकांत त्रिपाठी के प्रति – सुमित्रानंदन पंत

छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़ कर पर्वत कारा अचल रूढ़ियों की, कवि! तेरी कविता धारा मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर-सी नि:सृत-- गलित ललित आलोक राशि, चिर अकलुष अविजित! स्फटिक शिलाओं से तूने वाणी का मंदिर

मछुए का गीत – सुमित्रानंदन पंत

प्रेम की बंसी लगी न प्राण!  तू इस जीवन के पट भीतर  कौन छिपी मोहित निज छवि पर?  चंचल री नव यौवन के पर,  प्रखर प्रेम के बाण!  प्रेम की बंसी लगी न प्राण! 

यह धरती कितना देती है – सुमित्रानंदन पंत

मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे,  सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे,  रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी  और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा!  पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,  बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!-  सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये! 

अनुभूति – सुमित्रानंदन पंत

तुम आती हो, नव अंगों का शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो। बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम, सांसों में थमता स्पंदन-क्रम, तुम आती हो, अंतस्थल में शोभा ज्वाला लिपटाती हो।