ये बुझी सी शाम ये सहमी हुई परछाइयाँ ख़ून-ए-दिल भी इस फ़ज़ा में रंग भर सकता नहीं आ उतर आ काँपते होंटों पे ऐ मायूस आह सक़्फ़-ए-ज़िन्दाँ पर कोई पर्वाज़ कर सकता नहीं झिलमिलाए मेरी पलकों पे मह-ओ-ख़ुर भी तो क्या? इस अन्धेरे घर में इक तारा उतर सकता नहीं
Category: उर्दू शायरी
दूसरा बनबास – कैफ़ि आज़मी
राम बन-बास से जब लौट के घर में आए याद जंगल बहुत आया जो नगर में आए रक़्स-ए-दीवानगी आँगन में जो देखा होगा छे दिसम्बर को श्री राम ने सोचा होगा इतने दीवाने कहाँ से मिरे घर में आए जगमगाते थे जहाँ राम के क़दमों के निशाँ प्यार की काहकशाँ लेती थी अंगड़ाई जहाँ मोड़ नफ़रत के उसी राहगुज़र में आए
ताजमहल – कैफ़ि आज़मी
मरमरीं-मरमरीं फूलों से उबलता हीरा चाँद की आँच में दहके हुए सीमीं मीनार ज़ेहन-ए-शाएर से ये करता हुआ चश्मक पैहम एक मलिका का ज़िया-पोश ओ फ़ज़ा-ताब मज़ार
मेरा माज़ी मेरे काँधे पर – कैफ़ि आज़मी
अब तमद्दुन की हो जीत के हार मेरा माज़ी है अभी तक मेरे काँधे पर सवार आज भी दौड़ के गल्ले में जो मिल जाता हूँ जाग उठता है मेरे सीने में जंगल कोई सींग माथे पे उभर आते हैं पड़ता रहता है मेरे माज़ी का साया मुझ पर दौर-ए-ख़ूँख्वारी से गुज़रा हूँ छिपाऊँ क्यों पर दाँत सब खून में डूबे नज़र आते हैं
दोशीज़ा मालन – कैफ़ि आज़मी
लो पौ फटी वो छुप गई तारों की अंजुमन लो जाम-ए-महर से वो छलकने लगी किरन खिंचने लगा निगाह में फ़ितरत का बाँकपन जल्वे ज़मीं पे बरसे ज़मीं बन गई दुल्हन
हुर्फ – सज सोलापुर
किसीने कहा हर एक के हुर्फ रंग लाते है, कुछ अपने भी लिखलो, हमने भी दिल कि स्याही से कुछ हुर्फ लिख डाले, जो कि हवाओं मे घुल गये, अब शिकायत करे भी तो किससे?, हवाओं से?, हुर्फो से? या दिल से?, तडपने का मौसम गुजरा तो जवाब आया,
यादे-ग़ज़ालचश्मां – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
यादे-ग़ज़ालचश्मां, ज़िक्रे-समनइज़ारां जब चाहा कर लिया है कुंजे-क़फ़स बहारां आंखों में दर्दमंदी, होंठों पे उज़्रख़्वाही जानाना-वार आई शामे-फ़िराक़े-यारां
वो अहदे-ग़म – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
वो अहदे-ग़म की काहिशहा-ए-बेहासिल को क्या समझे जो उनकी मुख़्त्सर रूदाद भी सब्र-आज़मा समझे यहां वाबस्तगी, वां बरहमी, क्या जानिये क्यों है न हम अपनी नज़र समझे, न हम उनकी अदा समझे
बहार आई – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
बहार आई तो जैसे एक बार लौट आये हैं फिर अदम से वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे जो मिट के हर बार फिर जीये थे निखर गये हैं गुलाब सारे जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये तेरी राह में करते थे सर तलब सर-ए-राह-गुज़ार चले गये तेरी कज़ -अदाई से हार के शब-ए-इंतज़ार चली गई मेरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मेरे ग़म-गुसार चले गये



