अज़ा में बहते थे आँसू – कैफ़ि आज़मी

अज़ा में बहते थे आँसू यहाँ, लहू तो नहीं  ये कोई और जगह है ये लखनऊ तो नहीं  यहाँ तो चलती हैं छुरिया ज़ुबाँ से पहले  ये मीर अनीस की, आतिश की गुफ़्तगू तो नहीं  चमक रहा है जो दामन पे दोनों फ़िरक़ों के  बग़ौर देखो ये इस्लाम का लहू तो नहीं

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर – कैफ़ि आज़मी

अब तुम आग़ोश-ए-तसव्वुर में भी आया न करो  मुझ से बिखरे हुये गेसू नहीं देखे जाते  सुर्ख़ आँखों की क़सम काँपती पलकों की क़सम  थर-थराते हुये आँसू नहीं देखे जाते 

अंदेशे – कैफ़ि आज़मी

रूह बेचैन है इक दिल की अज़ीयत क्या है  दिल ही शोला है तो ये सोज़-ए-मोहब्बत क्या है वो मुझे भूल गई इसकी शिकायत क्या है रंज तो ये है के रो-रो के भुलाया होगा वो कहाँ और कहाँ काहिफ़-ए-ग़म सोज़िश-ए-जाँ उस की रंगीन नज़र और नुक़ूश-ए-हिरमा उस का एहसास-ए-लतीफ़ और शिकस्त-ए-अरमा तानाज़न एक ज़माना नज़र आया होगा

प्यार का जश्न – कैफ़ि आज़मी

प्यार का जश्न नई तरह मनाना होगा ग़म किसी दिल में सही ग़म को मिटाना होगा काँपते होंटों पे पैमान-ए-वफ़ा क्या कहना तुझ को लाई है कहाँ लग़्ज़िश-ए-पा क्या कहना मेरे घर में तिरे मुखड़े की ज़िया क्या कहना आज हर घर का दिया मुझ को जलाना होगा

नए ख़ाके – कैफ़ि आज़मी

नुक़ूश-ए-हसरत मिटा के उठना, ख़ुशी का परचम उड़ा के उठना मिला के सर बैठना मुबारक तराना-ए-फ़त्ह गा के उठना ये गुफ़्तुगू गुफ़्तुगू नहीं है बिगड़ने बनने का मरहला है धड़क रहा है फ़ज़ा का सीना कि ज़िन्दगी का मुआमला है ख़िज़ाँ रहे या बहार आए तुम्हारे हाथों में फ़ैसला है न चैन बे-ताब बिजलियों को न मुतमइन कारवान-ए-शबनम कभी शगूफ़ों के गर्म तेवर कभी गुलों का मिज़ाज बरहम शगूफ़ा ओ गुल के इस तसादुम में गुल्सिताँ बन गया जहन्नम

नई सुब्‍ह – कैफ़ि आज़मी

ये सेहत-बख़्श तड़का ये सहर की जल्वा-सामानी उफ़ुक़ सारा बना जाता है दामान-ए-चमन जैसे छलकती रौशनी तारीकियों पे छाई जाती है उड़ाए नाज़ियत की लाश पर कोई कफ़न जैसे उबलती सुर्ख़ियों की ज़द पे हैं हल्क़े सियाही के पड़ी हो आग में बिखरी ग़ुलामी की रसन जैसे

नया हुस्न – कैफ़ि आज़मी

कितनी रंगीं है फ़ज़ा कितनी हसीं है दुनिया कितना सरशार है ज़ौक़-ए-चमन-आराई आज इस सलीक़े से सजाई गई बज़्म-ए-गीती तू भी दीवार-ए-अजन्ता से उतर आई आज रू-नुमाई की ये साअत ये तही-दस्ती-ए-शौक़ न चुरा सकता हूँ आँखें न मिला सकता हूँ प्यार सौग़ात, वफ़ा नज़्र, मोहब्बत तोहफ़ा यही दौलत तिरे क़दमों पे लुटा सकता हूँ

दाएरा – कैफ़ि आज़मी

रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ बार-हा तोड़ चुका हूँ जिन को उन्हीं दीवारों से टकराता हूँ रोज़ बसते हैं कई शहर नए रोज़ धरती में समा जाते हैं ज़लज़लों में थी ज़रा सी गर्मी वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं

तसव्वुर – कैफ़ि आज़मी

ये किस तरह याद आ रही हो ये ख़्वाब कैसा दिखा रही हो कि जैसे सचमुच निगाह के सामने खड़ी मुस्कुरा रही हो ये जिस्म-ए-नाज़ुक, ये नर्म बाहें, हसीन गर्दन, सिडौल बाज़ू शगुफ़्ता चेहरा, सलोनी रंगत, घनेरा जूड़ा, सियाह गेसू नशीली आँखें, रसीली चितवन, दराज़ पलकें, महीन अबरू तमाम शोख़ी, तमाम बिजली, तमाम मस्ती, तमाम जादू

एक दुआ – कैफ़ि आज़मी

अब और क्या तेरा बीमार बाप देगा तुझे बस एक दुआ कि ख़ुदा तुझको कामयाब करे वो टाँक दे तेरे आँचल में चाँद और तारे तू अपने वास्ते जिस को भी इंतख़ाब करे