कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है – कैफ़ि आज़मी

कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है  जहाँ को अपनी तबाही का इंतिज़ार सा है  मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़ज़ा कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है  मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ  कि आज दामन-ए-यज़दाँ भी तार-तार-सा है

औरत – कैफ़ि आज़मी

उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे  क़ल्ब-ए-माहौल[1] में लर्ज़ां[2] शरर-ए-जंग[3] हैं आज  हौसले वक़्त के और ज़ीस्त[4] के यक-रंग हैं आज  आबगीनों[5] में तपाँ[6] वलवला-ए-संग[7] हैं आज  हुस्न और इश्क़ हम-आवाज़[8] ओ हम-आहंगल[9] हैं आज  जिस में जलता हूँ उसी आग में जलना है तुझे  उठ मेरी जान!! मेरे साथ ही चलना है तुझे

ऐ सबा – कैफ़ि आज़मी

ऐ सबा! लौट के किस शहर से तू आती है? तेरी हर लहर से बारूद की बू आती है! खून कहाँ बहता है इन्सान का पानी की तरह  जिस से तू रोज़ यहाँ करके वजू आती है? धाज्जियाँ तूने नकाबों की गिनी तो होंगी  यूँ ही लौट आती है या कर के रफ़ू आती

एक बोसा – कैफ़ि आज़मी

जब भी चूम लेता हूँ उन हसीन आँखों को  सौ चराग अँधेरे में जगमगाने लगते हैं फूल क्या शगूफे क्या चाँद क्या सितारे क्या  सब रकीब कदमों पर सर झुकाने लगते हैं

इतना तो ज़िन्दगी में – कैफ़ि आज़मी

इतना तो ज़िन्दगी में किसी की ख़लल पड़े  हँसने से हो सुकून ना रोने से कल पड़े  जिस तरह हँस रहा हूँ मैं पी-पी के अश्क-ए-ग़म  यूँ दूसरा हँसे तो कलेजा निकल पड़े  एक तुम के तुम को फ़िक्र-ए-नशेब-ओ-फ़राज़ है एक हम के चल पड़े तो बहरहाल चल पड़े

गुरुदत्त के लिए नोहा – कैफ़ि आज़मी

रहने को सदा दहर में आता नहीं कोई तुम जैसे गए ऐसे भी जाता नहीं कोई डरता हूँ कहीं ख़ुश्क न हो जाए समुन्दर राख अपनी कभी आप बहाता नहीं कोई इक बार तो ख़ुद मौत भी घबरा गई होगी यूँ मौत को सीने से लगाता नहीं कोई

इब्ने-मरियम – कैफ़ि आज़मी

तुम ख़ुदा हो  ख़ुदा के बेटे हो या फ़क़त[2] अम्न[3] के पयंबर[4] हो या किसी का हसीं तख़य्युल[5] हो जो भी हो मुझ को अच्छे लगते हो जो भी हो मुझ को सच्चे लगते हो

आवारा सजदे – कैफ़ि आज़मी

इक यही सोज़-ए-निहाँ कुल मेरा सरमाया है  दोस्तो मैं किसे ये सोज़-ए-निहाँ नज़र करूँ कोई क़ातिल सर-ए-मक़्तल नज़र आता ही नहीं किस को दिल नज़र करूँ और किसे जाँ नज़र करूँ?

आज सोचा तो आँसू भर आए – कैफ़ि आज़मी

आज सोचा तो आँसू भर आए मुद्दतें हो गईं मुस्कुराए हर कदम पर उधर मुड़ के देखा  उनकी महफ़िल से हम उठ तो आए दिल की नाज़ुक रगें टूटती हैं  याद इतना भी कोई न आए

आज की रात – कैफ़ि आज़मी

आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है, आज की रात न फ़ुटपाथ पे नींद आएगी, सब उठो, मैं भी उठूँ, तुम भी उठो, तुम भी उठो, कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी । ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी, पाँव जब टूटती शाखों से उतारे हमने, इन मकानों को ख़बर है न, मकीनों[1] को ख़बर उन दिनों की जो गुफ़ाओं में गुज़ारे हमने ।