एक दिन मैंने मैन में शब्द को धँसाया था और एक गहरी पीड़ा, एक गहरे आनंद में, सन्निपात-ग्रस्त सा, विवश कुछ बोला था; सुना, मेरा वह बोलना दुनियाँ में काव्य कहलाया था।
Author: हरिवंशराय बच्चन
गर्म लोहा – हरिवंशराय बच्चन
गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुतेरा पड़ा है। सख्त पंजा, नस कसी चौड़ी कलाई और बल्लेदार बाहें, और आँखें लाल चिंगारी सरीखी, चुस्त औ तीखी निगाहें, हाँथ में घन, और दो लोहे निहाई पर धरे तू देखता क्या? गर्म लोहा पीट, ठंडा पीटने को वक्त बहुते
आज मुझसे बोल, बादल – हरिवंशराय बच्चन
आज मुझसे बोल, बादल! तम भरा तू, तम भरा मैं, ग़म भरा तू, ग़म भरा मैं, आज तू अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल आज मुझसे बोल, बादल!
युग की उदासी – हरिवंशराय बच्चन
अकारण ही मैं नहीं उदास अपने में ही सिकुड सिमट कर जी लेने का बीता अवसर जब अपना सुख दुख था, अपना ही उछाह उच्छ्वास अकारण ही मैं नहीं उदा
यात्रा और यात्री – हरिवंशराय बच्चन
साँस चलती है तुझे चलना पड़ेगा ही मुसाफिर! चल रहा है तारकों का दल गगन में गीत गाता, चल रहा आकाश भी है शून्य में भ्रमता-भ्रमाता, पाँव के नीचे पड़ी अचला नहीं, यह चंचला है, एक कण भी, एक क्षण भी एक थल पर टिक न पाता,
साथी साथ ना देगा दु:ख भी – हरिवंशराय बच्चन
काल छीनने दु:ख आता है जब दु:ख भी प्रिय हो जाता है नहीं चाहते जब हम दु:ख के बदले चिर सुख भी! साथी साथ ना देगा दु:ख भी!
पथ की पहचान – हरिवंशराय बच्चन
पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले पुस्तकों में है नहीं छापी गई इसकी कहानी, हाल इसका ज्ञात होता है न औरों की ज़बानी, अनगिनत राही गए इस राह से, उनका पता क्या, पर गए कुछ लोग इस पर छोड़ पैरों की निशानी, यह निशानी मूक होकर भी बहुत कुछ बोलती है, खोल इसका अर्थ, पंथी, पंथ का अनुमान कर ले। पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले।
मुझ से चाँद कहा करता है – हरिवंशराय बच्चन
चोट कड़ी है काल प्रबल की, उसकी मुस्कानों से हल्की, राजमहल कितने सपनों का पल में नित्य ढहा करता है| मुझ से चाँद कहा करता है-- तू तो है लघु मानव केवल, पृथ्वी-तल का वासी निर्बल, तारों का असमर्थ अश्रु भी नभ से नित्य बहा करता है। मुझ से चाँद कहा करता है--
मेरा संबल – हरिवंशराय बच्चन
मैं जीवन की हर हल चल में कुछ पल सुखमय, अमरण अक्षय, चुन लेता हूँ। मैं जग के हर कोलाहल में कुछ स्वर मधुमय, उन्मुक्त अभय, सुन लेता हूँ।
क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! – हरिवंशराय बच्चन
अगणित उन्मादों के क्षण हैं, अगणित अवसादों के क्षण हैं, रजनी की सूनी की घडियों को किन-किन से आबाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं! याद सुखों की आसूं लाती, दुख की, दिल भारी कर जाती, दोष किसे दूं जब अपने से, अपने दिन बर्बाद करूं मैं! क्या भूलूं, क्या याद करूं मैं!

