आज तुम मेरे लिये हो – हरिवंशराय बच्चन

प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो । मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब, मैं समय के शाप से डरता नहीं अब, आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो ।

मनुष्य की मूर्ति – हरिवंशराय बच्चन

देवलोक से मिट्टी लाकर मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता! रचता मुख जिससे निकली हो वेद-उपनिषद की वर वाणी, काव्य-माधुरी, राग-रागिनी जग-जीवन के हित कल्याणी, हिंस्र जन्तु के दाढ़ युक्त जबड़े-सा पर वह मुख बन जाता! देवलोक से मिट्टी लाकर मैं मनुष्य की मूर्ति बनाता!

उस पार न जाने क्या होगा – हरिवंशराय बच्चन

इस पार, प्रिये मधु है तुम हो,  उस पार न जाने क्या होगा!  यह चाँद उदित होकर नभ में  कुछ ताप मिटाता जीवन का,  लहरा लहरा यह शाखाएँ  कुछ शोक भुला देती मन का, कल मुर्झानेवाली कलियाँ  हँसकर कहती हैं मगन रहो, 

रीढ़ की हड्डी – हरिवंशराय बच्चन

मैं हूँ उनके साथ,खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़ कभी नही जो तज सकते हैं, अपना न्यायोचित अधिकार कभी नही जो सह सकते हैं, शीश नवाकर अत्याचार एक अकेले हों, या उनके साथ खड़ी हो भारी भीड़ मैं हूँ उनके साथ, खड़ी जो सीधी रखते अपनी रीढ़

हिंया नहीं कोऊ हमार – हरिवंशराय बच्चन

अस्‍त रवि ललौंछ रंजित पच्छिमी नभ; क्षितिज से ऊपर उठा सिर चल कर के एक तारा मद-आभा उदासी जैसे दबाए हुए अंदर आर्द्र नयनों मुस्‍कराता, एक सूने पथ पर चुपचाप एकाकी चले जाते मुसाफिर को कि जैसे कर रहा हो कुछ इशारा

क्यों जीता हूँ – हरिवंशराय बच्चन

आधे से ज़्यादा जीवन जी चुकने पर मैं सोच रहा हूँ- क्यों जीता हूँ? लेकिन एक सवाल अहम इससे भी ज़्यादा, क्यों मैं ऎसा सोच रहा हूँ?

कौन मिलनातुर नहीं है ? – हरिवंशराय बच्चन

आक्षितिज फैली हुई मिट्टी निरन्तर पूछती है, कब कटेगा, बोल, तेरी चेतना का शाप, और तू हों लीन मुझमे फिर बनेगा शान्त ? कौन मिलनातुर नहीं है ?

क्यों पैदा किया था? – हरिवंशराय बच्चन

ज़िन्दगी और ज़माने की कशमकश से घबराकर मेरे बेटे मुझसे पूछते हैं कि हमें पैदा क्यों किया था? और मेरे पास इसके सिवाय कोई जवाब नहीं है कि मेरे बाप ने मुझसे बिना पूछे मुझे क्यों पैदा किया था?

दो पीढियाँ – हरिवंशराय बच्चन

मुंशी जी तन्नाए पर जब उनसे कहा गया, ऎसा जुल्म और भी सह चुके हैं तो चले गए दुम दबाए। मुंशी जी के लड़के तन्नाए, पर जब उनसे कहा गया, ऎसा ज़ुल्म औरों पर भी हुआ है तो वे और भी तन्नाए।

क़दम बढाने वाले – हरिवंशराय बच्चन

अगर तुम्हारा मुकाबला दीवार से है, पहाड़ से है, खाई-खंदक से, झाड़-झंकाड़ से है तो दो ही रास्ते हैं- दीवार को गिराओ,