जब ज्वालाओं के जाल फेंकते,भुवन भास्कर धरती पर
तब ग्रीष्मकाल की भरी दुपहरी,आग बरसती धरती पर
जीव जंतु बेहाल ताप से , चैन नहीं मिलता घर बाहर
ताक रहे सब सूने नभ को मन में आस तुम्हारी पाले।
हे सागर वासी घन काले !
बाग बगीचे सूख गए सब, सूख गई फूलों की क्यारी
वृक्ष लतायें झुलस गईं हैं , बाकी नहीं रही हरियाली
दूर तप्त खेतों के ऊपर, मृगतृष्णा आभासित होती
पृथ्वी अँचल ताप शिखर पर,चक्रवात बन कर लू डोले।
हे सागर वासी घन काले !
देख विश्व की ग्रीष्म वेदना, करुणा से भर जाने वाले
निकले घर से ताप मिटाने, जल तन वाले घन मतवाले
उमड़ घुमड़ कर बरसाते जल,जग को सराबोर कर डाले
तब आभार जताता चातक मधुलय रस श्रवणों में घोले।
हे सागर वासी घन काले !
– ज्ञान प्रकाश सिंह
यह कविता लेखक श्री ज्ञान प्रकाश सिंह की पुस्तक ‘स्पर्श” से ली गयी है । पूरी पुस्तक ख़रीदने हेतु निकटतम पुस्तक भंडार जायें । भारती प्रकाशन मूल्य रु 200 /-
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