छंद बंध ध्रुव तोड़, फोड़ कर पर्वत कारा अचल रूढ़ियों की, कवि! तेरी कविता धारा मुक्त अबाध अमंद रजत निर्झर-सी नि:सृत-- गलित ललित आलोक राशि, चिर अकलुष अविजित! स्फटिक शिलाओं से तूने वाणी का मंदिर
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प्रार्थना – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
हे दीनबंधु दया-निकेतन विहग-केतन श्रीपते। सब शोक-शमन त्रिताप-मोचन दुख-दमन जगतीपते। भव-भीति-भंजन दुरित-गंजन अवनि-जन-रंजन विभो। बहु-बार जन-हित-अवतरित ऐ अति-उदार-चरित प्रभो
मछुए का गीत – सुमित्रानंदन पंत
प्रेम की बंसी लगी न प्राण! तू इस जीवन के पट भीतर कौन छिपी मोहित निज छवि पर? चंचल री नव यौवन के पर, प्रखर प्रेम के बाण! प्रेम की बंसी लगी न प्राण!
अभेद का भेद – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
खोजे खोजी को मिला क्या हिन्दू क्या जैन। पत्ता पत्ता क्यों हमें पता बताता है न।1। रँगे रंग में जब रहे सकें रंग क्यों भूल। देख उसी की ही फबन फूल रहे हैं फूल।2। क्या उसकी है सोहती नहीं नयन में सोत। क्या जग में है जग रही नहीं जागती जोत।3।
यह धरती कितना देती है – सुमित्रानंदन पंत
मैंने छुटपन में छिपकर पैसे बोये थे, सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे, रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी और फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूँगा! पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा, बन्ध्या मिट्टी नें न एक भी पैसा उगला!- सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गये!
निर्मम संसार – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
वायु के मिस भर भरकर आह । ओस मिस बहा नयन जलधार । इधर रोती रहती है रात । छिन गये मणि मुक्ता का हार ।।१।।
अनुभूति – सुमित्रानंदन पंत
तुम आती हो, नव अंगों का शाश्वत मधु-विभव लुटाती हो। बजते नि:स्वर नूपुर छम-छम, सांसों में थमता स्पंदन-क्रम, तुम आती हो, अंतस्थल में शोभा ज्वाला लिपटाती हो।
मतवाली ममता – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
मानव ममता है मतवाली । अपने ही कर में रखती है सब तालों की ताली । अपनी ही रंगत में रंगकर रखती है मुँह लाली । ऐसे ढंग कहा वह जैसे ढंगों में हैं ढाली । धीरे-धीरे उसने सब लोगों पर आँखें डाली । अपनी-सी सुन्दरता उसने कहीं न देखी-भाली ।
अमर स्पर्श – सुमित्रानंदन पंत
खिल उठा हृदय, पा स्पर्श तुम्हारा अमृत अभय! खुल गए साधना के बंधन, संगीत बना, उर का रोदन, अब प्रीति द्रवित प्राणों का पण, सीमाएँ अमिट हुईं सब लय।
फूल – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
रंग कब बिगड़ सका उनका रंग लाते दिखलाते हैं । मस्त हैं सदा बने रहते । उन्हें मुसुकाते पाते हैं ।।१।। भले ही जियें एक ही दिन । पर कहा वे घबराते हैं । फूल हँसते ही रहते हैं । खिला सब उनको पाते हैं ।।२।।


