बैठ लें कुछ देर, आओ,एक पथ के पथिक-से प्रिय, अंत और अनन्त के, तम-गहन-जीवन घेर। मौन मधु हो जाए
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अट नहीं रही है – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
अट नहीं रही है आभा फागुन की तन सट नहीं रही है।
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! पूछेगा सारा गाँव, बंधु!



