दीन – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

सह जाते हो उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न, हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न, अन्तिम आशा के कानों में स्पन्दित हम - सबके प्राणों में अपने उर की तप्त व्यथाएँ, क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ

मुक्ति – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा पत्थर, की निकलो फिर, गंगा-जल-धारा! गृह-गृह की पार्वती! पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती उर-उर की बनो आरती!-- भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा!-- तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा!

मौन – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

बैठ लें कुछ देर, आओ,एक पथ के पथिक-से प्रिय, अंत और अनन्त के, तम-गहन-जीवन घेर। मौन मधु हो जाए

अट नहीं रही है – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

अट नहीं रही है आभा फागुन की तन सट नहीं रही है।

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”

बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु! पूछेगा सारा गाँव, बंधु!

परिवर्तन – सुमित्रानंदन पंत

अहे निष्ठुर परिवर्तन! तुम्हारा ही तांडव नर्तन विश्व का करुण विवर्तन! तुम्हारा ही नयनोन्मीलन, निखिल उत्थान, पतन! अहे वासुकि सहस्र फन!

मौन-निमन्त्रण – सुमित्रानंदन पंत

स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार चकित रहता शिशु सा नादान , विश्व के पलकों पर सुकुमार विचरते हैं जब स्वप्न अजान,

याचना – सुमित्रानंदन पंत

बना मधुर मेरा जीवन! नव नव सुमनों से चुन चुन कर धूलि, सुरभि, मधुरस, हिम-कण, मेरे उर की मृदु-कलिका में भरदे, करदे विकसित मन।

झर पड़ता जीवन डाली से – सुमित्रानंदन पंत

झर पड़ता जीवन-डाली से मैं पतझड़ का-सा जीर्ण-पात!-- केवल, केवल जग-कानन में लाने फिर से मधु का प्रभात!

विनय – सुमित्रानंदन पंत

मा! मेरे जीवन की हार तेरा मंजुल हृदय-हार हो, अश्रु-कणों का यह उपहार; मेरे सफल-श्रमों का सार तेरे मस्तक का हो उज्जवल श्रम-जलमय मुक्तालंकार।