शाख़ पर ख़ूने-गुल रवाँ है वही – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

शाख़ पर ख़ूने-गुल रवाँ है वही शोख़ी-ए-रंगे-गुलसिताँ है वही  सर वही है तो आस्ताँ है वही जाँ वही है तो जाने-जाँ है वही  अब जहाँ मेहरबाँ नहीं कोई कूचः-ए-यारे-मेहरबाँ है वही 

सब क़त्ल होके – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

सब क़त्ल होके तेरे मुक़ाबिल से आये हैं हम लोग सुर्ख-रू हैं कि मंजिल से आये हैं  शम्मए नज़र, खयाल के अंजुम, जिगर के दाग़ जितने चिराग़ हैं तेरी महफ़िल से आये हैं 

आपकी याद आती रही रात-भर – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

"आपकी याद आती रही रात-भर" चाँदनी दिल दुखाती रही रात-भर गाह जलती हुई, गाह बुझती हुई शम-ए-ग़म झिलमिलाती रही रात-भर

गुलों में रंग भरे – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

चलो फिर से मुस्कुराएं – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

जो गुज़र गयी हैं रातें उन्हें फिर जगा के लाएं जो बिसर गयी हैं बातें उन्हें याद में बुलायें

कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

वो लोग बहुत ख़ुशक़िस्मत थे जो इश्क़ को काम समझते थे या काम से आशिक़ी करते थे हम जीते जी मसरूफ़ रहे