अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है जो भी चल निकली है, वो बात कहाँ ठहरी है आज तक शैख़ के इकराम में जो शै थी हराम अब वही दुश्मने-दीं राहते-जाँ ठहरी है है ख़बर गर्म के फिरता है गुरेज़ाँ नासेह गुफ़्तगू आज सरे-कू-ए-बुताँ ठहरी है

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की बर्कतें थी शराबख़ाने की कौन है जिससे गुफ़्तुगु कीजे जान देने की दिल लगाने की बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल उनसे जो बात थी बताने की

रंग है दिल का – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

तुम न आये थे तो हर चीज़ वहीं थी कि जो है आसमां हद्दे-नज़र, राहगुज़र राहगुज़र, शीशा-ए-मय शीशा-ए-मय  और अब शीशा-ए-मय, राहगुज़र, रंग-ए-फलक रंग है दिल का मेरे खूने-जिगर होने तक चम्पई रंग कभी, राहते-दीदार का रंग सुर्मई रंग की है साअते-बेज़ार का रंग

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरी महबूब न माँग मैं ने समझा था कि तू है तो दरख़शाँ[1] है हयात[2] तेरा ग़म है तो ग़म-ए-दहर[3] का झगड़ा क्या है तेरी सूरत से है आलम[4] में बहारों को सबात[5] तेरी आँखों के सिवा दुनिया में रक्खा क्या है  तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ[6] हो जाये यूँ न था मैं ने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा

दिल के क़राइन- फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

वहीं हैं, दिल के क़राइन तमाम कहते हैं वो इक ख़लिश कि जिसे तेरा नाम कहते हैं  तुम आ रहे हो कि बजती हैं मेरी ज़ंजीरें न जाने क्या मेरे दीवारो-बाम कहते हैं  यही कनारे-फ़लक का सियहतरीं गोशा यही है मतलए-माहे-तमाम कहते हैं 

वफ़ा-ए-वा’दः नहीं – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

वफ़ा-ए-वा'दः नहीं, वा'दः-ए-दिगर भी नहीं वो मुझसे रूठे तो थे, लेकिन इस क़दर भी नहीं  बरस रही है हरीमे-हवस मे दौलते-हुस्न गदा-ए-इ'श्क़ के कासे मे इक नज़र भी नहीं 

तेरी सूरत – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

तेरी सूरत जो दिलनशीं की है आशना शक्ल हर हसीं की है  हुस्न से दिल लगा के हस्ती की हर घड़ी हमने आतशीं की है  सुबहे-गुल हो की शामे-मैख़ाना मदह उस रू-ए-नाज़नीं की है 

सितम सिखलायेगा रस्मे-वफा – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

सितम सिखलायेगा रस्मे-वफा, ऐसे नहीं होता सनम दिखलायेंगे राहे-खुदा, ऐसे नहीं होता  गिनो सब हसरतें, जो खूं हुई हैं तन के मक़तल में मेरे क़ातिल हिसाबे-खूबहां, ऐसे नहीं होता 

सितम की रस्में – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

सितम की रस्में बहुत थीं लेकिन, न थी तेरी अंजुमन से पहले सज़ा खता-ए-नज़र से पहले, इताब ज़ुर्मे-सुखन से पहले  जो चल सको तो चलो के राहे-वफा बहुत मुख्तसर हुई है मुक़ाम है अब कोई न मंजिल, फराज़े-दारो-रसन से पहले 

शफ़क़ की राख में – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’

शाख़ पर ख़ूने-गुल रवाँ है वही शोख़ी-ए-रंगे-गुलसिताँ है वही  सर वही है तो आस्ताँ है वही जाँ वही है तो जाने-जाँ है वही  अब जहाँ मेहरबाँ नहीं कोई कूचः-ए-यारे-मेहरबाँ है वही