यादे-ग़ज़ालचश्मां, ज़िक्रे-समनइज़ारां जब चाहा कर लिया है कुंजे-क़फ़स बहारां आंखों में दर्दमंदी, होंठों पे उज़्रख़्वाही जानाना-वार आई शामे-फ़िराक़े-यारां
Category: फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (فیض احمد فیض), (13 फ़रवरी 1911 – 1984) भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे जिनको अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव (इंक़लाबी और रूमानी) के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्म, ग़ज़ल लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी (तरक्कीपसंद) दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। फ़ैज़ पर कई बार कम्यूनिस्ट (साम्यवादी) होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप लगे थे पर उनकी रचनाओं में ग़ैर-इस्लामी रंग नहीं मिलते। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता ‘ज़िन्दान-नामा’ को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा’।
कविताएँ की सूची
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न माँग
रंग है दिल का मेरे
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
अब वही हर्फ़-ए-जुनूँ सबकी ज़ुबाँ ठहरी है
तेरी सूरत जो दिलनशीं की है
खुर्शीदे-महशर की लौ
ढाका से वापसी पर
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं
निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ
आज बाज़ार में पा-ब-जौलाँ चलो
रक़ीब से
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये
बहार आई
नौहा
तेरी उम्मीद तेरा इंतज़ार जब से है
बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे
जब तेरी समन्दर आँखों में
आप की याद आती रही रात भर (मख़दूम* की याद में)
चश्मे-मयगूँ ज़रा इधर कर दे
चलो फिर से मुस्कुराएं (गीत)
चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ये शहर उदास इतना ज़ियादा तो नहीं था
गुलों में रंग भरे, बादे-नौबहार चले
गर्मी-ए-शौक़-ए-नज़्ज़ारा का असर तो देखो
गरानी-ए-शबे-हिज़्रां दुचंद क्या करते
मेरे दिल ये तो फ़क़त एक घड़ी है
ख़ुदा वो वक़्त न लाये कि सोगवार हो तू
मेरी तेरी निगाह में जो लाख इंतज़ार हैं
कोई आशिक़ किसी महबूब से
तुम आये हो न शबे-इन्तज़ार गुज़री है
तुम जो पल को ठहर जाओ तो ये लम्हें भी
तुम मेरे पास रहो
चाँद निकले किसी जानिब तेरी ज़ेबाई का
दश्ते-तन्हाई में ऐ जाने-जहाँ लरज़ा हैं
दिल में अब यूँ तेरे भूले हुए ग़म आते हैं
मेरे दिल मेरे मुसाफ़िर
आइये हाथ उठायें हम भी
दोनों जहान तेरी मोहब्बत में हार के
नहीं निगाह में मंज़िल तो जुस्तजू ही सही
न गँवाओ नावके-नीमकश, दिले-रेज़ा रेज़ा गँवा दिया
फ़िक्रे-दिलदारी-ए-गुलज़ार करूं या न करूं
नज़्रे ग़ालिब
नसीब आज़माने के दिन आ रहे हैं
तनहाई
फिर लौटा है ख़ुरशीदे-जहांताब सफ़र से
फिर हरीफ़े-बहार हो बैठे
बहुत मिला न मिला ज़िन्दगी से ग़म क्या है
बात बस से निकल चली है
बेदम हुए बीमार दवा क्यों नहीं देते
इन्तिसाब
सोचने दो
मुलाक़ात
पास रहो
मौज़ू-ए-सुख़न*
बोल**
हम लोग
क्या करें
यह फ़स्ल उमीदों की हमदम*
शीशों का मसीहा* कोई नहीं
सुबहे आज़ादी
ईरानी तुलबा के नाम
सरे वादिये सीना
फ़िलिस्तीनी बच्चे के लिए लोरी
तिपबं बवउम ठंबा
हम जो तारीक राहों में मारे गए
एक मन्जर
ज़िन्दां की एक शाम
ऐ रोशनियों के शहर
यहाँ से शहर को देखो * मन्ज़र
एक शहरे-आशोब* का आग़ाज़*
बेज़ार फ़ज़ा दरपये आज़ार सबा है
सरोद
वासोख़्त*
शहर में चाके गिरेबाँ हुए नापैद अबके
हर सम्त परीशाँ तेरी आमद के क़रीने
रंग पैराहन का, ख़ुश्बू जुल्फ़ लहराने का नाम
यह मौसमे गुल गर चे तरबख़ेज़ बहुत है
क़र्ज़े-निगाहे-यार अदा कर चुके हैं हम
वफ़ाये वादा नहीं, वादये दिगर भी नहीं
शफ़क़ की राख में जल बुझ गया सितारये शाम
कब याद में तेरा साथ नहीं, कब हाथ में तेरा हाथ नहीं
जमेगी कैसे बिसाते याराँ कि शीश-ओ-जाम बुझ गये हैं
हम पर तुम्हारी चाह का इल्ज़ाम ही तो है
जैसे हम-बज़्म हैं फिर यारे-तरहदार से हम
हम मुसाफ़िर युँही मस्रूफ़े सफ़र जाएँगे
मेरे दर्द को जो ज़बाँ मिले
हज़र करो मेरे तन से
दिले मन मुसाफ़िरे मन
जिस रोज़ क़ज़ा आएगी
ख़्वाब बसेरा
ख़त्म हुई बारिशे संग
वो अहदे-ग़म – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
वो अहदे-ग़म की काहिशहा-ए-बेहासिल को क्या समझे जो उनकी मुख़्त्सर रूदाद भी सब्र-आज़मा समझे यहां वाबस्तगी, वां बरहमी, क्या जानिये क्यों है न हम अपनी नज़र समझे, न हम उनकी अदा समझे
बहार आई – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
बहार आई तो जैसे एक बार लौट आये हैं फिर अदम से वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे जो मिट के हर बार फिर जीये थे निखर गये हैं गुलाब सारे जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये तेरी राह में करते थे सर तलब सर-ए-राह-गुज़ार चले गये तेरी कज़ -अदाई से हार के शब-ए-इंतज़ार चली गई मेरे ज़ब्त-ए-हाल से रूठ कर मेरे ग़म-गुसार चले गये
रक़ीब से – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
आ, के वाबस्तः हैं उस हुस्न की यादें तुझ से जिसने इस दिल को परीखानः बना रखा था जिसकी उल्फ़त में भुला रखी थी दुनिया हमने दह्र को दह्र का अफ़साना बना रखा था आशना हैं तेरे क़दमों से वो राहें जिन पर उसकी मदहोश जवानी ने इ’नायत की है कारवाँ गुज़रे हैं जिनसे उसी रा'नाई के जिसकी इन आँखों ने बे-सूद इ’बादत की है
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो चश्म-ए-नम जान-ए-शोरीदा काफी नहीं तोहमत-ए-इश्क़ पोशीदा काफी नहीं आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो दस्त-अफ्शां चलो, मस्त-ओ-रक़्सां चलो खाक-बर-सर चलो, खूं-ब-दामां चलो राह तकता है सब शहर-ए-जानां चलो
निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
निसार मैं तेरी गलियों के अए वतन, कि जहाँ चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले जो कोई चाहनेवाला तवाफ़ को निकले नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जाँ बचा के चले
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
तुम्हारी याद के जब ज़ख़्म भरने लगते हैं किसी बहाने तुम्हें याद करने लगते हैं हदीस-ए-यार के उनवाँ निखरने लगते हैं तो हर हरीम में गेसू सँवरने लगते हैं हर अजनबी हमें महरम दिखाई देता है जो अब भी तेरी गली गली से गुज़रने लगते हैं
ढाका से वापसी पर – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
हम केः ठहरे अजनबी इतनी मदारातों[1] के बाद फिर बनेंगे आशना[2] कितनी मुलाक़ातों के बाद कब नज़र में आयेगी बे-दाग़ सब्ज़े की बहार ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद
ख़ुर्शीद-ए-महशर की लौ – फ़ैज़ अहमद ‘फ़ैज़’
आज के दिन न पूछो मेरे दोस्तो दूर कितने हैं ख़ुशियाँ मनाने के दिन खुल के हँसने के दिन गीत गाने के दिन प्यार करने के दिन दिल लगाने के दिन

