तुम और तुम्हारा शहर – रुचिका मान ‘रूह’

एक अरसे पहले तेरे कूचे से निकले थे हम, अरमानों की उलझी हुई गाँठे लिए, बेवजह चलती हुई साँसों के साथ... और देख तो..एक मुद्दत बाद आज लौटे हैं, वैसा का वैसा ही है सब आज भी यहाँ...

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बदलाव – रुचिका मान ‘रूह’

ये कैसा विमूढ़ता का पुलिंदा लिये बैठे हो? सुना नहीं तुमने कि शहर बदल रहा है? ऐसे निरीह कब हुए तुम? यहां की रिवायतों से इतने अनजान तो कभी नहीं थे... तुम तो उत्साहित थे.... नव- उत्तेजना का दौर है,

वो एक दिन – रुचिका मान ‘रूह’

एक दिन जब हम साथ न रहेंगे, और तुम्हे अनायास ही मेरा ख़याल आएगा, हताश मत होना.  तुम मुझे वहीं पाओगे

सवालों  की  घुटन – रुचिका मान ‘रूह’

क्या लौट आना चाहते हो? इस ख़याल से कि ठहरी हुई सी रूह मिलेगी सब बिसरा कर वहीं जमी हुई अविरल , अचल, अभंग- नभमंडल बन.... दृढ़, स्थिर, अक्षीण-  तुम्हारी बाट में?

रक़ीब के नाम – रुचिका मान ‘रूह’

वो...जिसने  बड़ी नवाज़िश से मेरी सियाह रातों पे एहसान किया था और बड़े नाज़ों से मेरी बेपनाह वफ़ा का पैमाँ लिया था जो...नज़ाकत से मेरी रूह को फना कर गया  और नाहक ही मेरे इश्क़ को गुनाह कर गया वो...मेरी ज़ीस्त कि हकीकत मेरी साँसों की  कैफियत

 इंतज़ार – रुचिका मान ‘रूह’ (अतिथि लेखक)

क्या लौट आना चाहते हो? इस ख़याल से कि ठहरी हुई सी रूह मिलेगी सब बिसरा कर वहीं जमी हुई अविरल , अचल, अभंग- नभमंडल बन.... दृढ़, स्थिर, अक्षीण-  तुम्हारी बाट में?

 प्रवाह – रुचिका मान ‘रूह’ (अतिथि लेखक)

एक दिन इस्पात के पंखों पर सवार हो एक आवारा झोंका बह निकला- चटक मन-मोदकों से सामंजस्य बनाने |