मधुकर ! तब तुम गुंजन करना –  ज्ञान प्रकाश सिंह

भँवरा ! ये दिन कठिन हैं  पर फिर वसंत ऋतु आएगी, नवकुसुम खिलेंगे उपवन में, नवगीत कोकिला गाएगी।

मन विचरण करता रहता है –  ज्ञान प्रकाश सिंह

ऐसे ही विचरण करता मन पहुँच गया क्रीड़ास्थल पर, ऋषिमा जहाँ खेलने आती , अपनी मम्मी को संग लेकर । साधन वहाँ प्रतिस्थापित थे मन बहलाने हेतु अनेक किन्तु अनूठा दिखलाई , पड़ता था उनमें से एक । वह था एक अचेतन लेकिन , होता प्रतीत चेतन युक्त लहराता दोनों हाथों को मानो करता सबका … Continue reading मन विचरण करता रहता है –  ज्ञान प्रकाश सिंह

मैं क्या क्या छोड़ आया हूँ – ज्ञान प्रकाश सिंह

क्लब के सामने ऋषिमा ने, जहाँ फ़ोटो खिंचाया था गमकते लहलहाते फूलों की क्यारी छोड़ आया हूँ ।       पैदल रास्ते पर रुक कर, जिसे ऋषिमा दिखाती थी पक्की सड़क के मोड़ पर, उस ‘जे’ को छोड़ आया हूँ ।     जिनकी ओट से बच्चे ने, हाइड-सीक खेला था बार-बी-क्यू के पास, … Continue reading मैं क्या क्या छोड़ आया हूँ – ज्ञान प्रकाश सिंह

सब याद है मुझको अब भी… – ज्ञान प्रकाश सिंह

ऋषिमा अब उस पते पर नहीं रहती किंतु सब याद है मुझको अब भी । फ़्लैट की बाल्कनी में खड़ी हो मेरे साथ जब भी , आते पवन के तेज़ झोंकों को ऊँचे स्वर में रुक जाने को कहती थी और जब तेज़ बारिश हो उसे जाने को कहती थी । ‘स्टॉप विंड , स्टॉप … Continue reading सब याद है मुझको अब भी… – ज्ञान प्रकाश सिंह