अमर राष्ट्र – माखनलाल चतुर्वेदी

छोड़ चले, ले तेरी कुटिया, यह लुटिया-डोरी ले अपनी, फिर वह पापड़ नहीं बेलने; फिर वह माल पडे न जपनी। यह जागृति तेरी तू ले-ले, मुझको मेरा दे-दे सपना, तेरे शीतल सिंहासन से सुखकर सौ युग ज्वाला तपना।

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चिंता – सुभद्रा कुमारी चौहान

लगे आने, हृदय धन से कहा मैंने कि मत आओ। कहीं हो प्रेम में पागल न पथ में ही मचल जाओ॥ कठिन है मार्ग, मुझको मंजिलें वे पार करनीं हैं। उमंगों की तरंगें बढ़ पड़ें शायद फिसल जाओ॥

चलते समय – सुभद्रा कुमारी चौहान

तुम मुझे पूछते हो ’जाऊँ’? मैं क्या जवाब दूँ, तुम्हीं कहो! ’जा...’ कहते रुकती है जबान किस मुँह से तुमसे कहूँ ’रहो’!!

गिरफ़्तार होने वाले हैं – सुभद्रा कुमारी चौहान

‘‘गिरफ़्तार होने वाले हैं, आता है वारंट अभी॥’’ धक-सा हुआ हृदय, मैं सहमी, हुए विकल साशंक सभी॥ किन्तु सामने दीख पड़े मुस्कुरा रहे थे खड़े-खड़े। रुके नहीं, आँखों से आँसू सहसा टपके बड़े-बड़े॥ ‘‘पगली, यों ही दूर करेगी माता का यह रौरव कष्ट?’’

खिलौनेवाला – सुभद्रा कुमारी चौहान

वह देखो माँ आज खिलौनेवाला फिर से आया है। कई तरह के सुंदर-सुंदर नए खिलौने लाया है। हरा-हरा तोता पिंजड़े में गेंद एक पैसे वाली छोटी सी मोटर गाड़ी है सर-सर-सर चलने वाली।

कठिन प्रयत्नों से सामग्री – सुभद्रा कुमारी चौहान

कठिन प्रयत्नों से सामग्री मैं बटोरकर लाई थी। बड़ी उमंगों से मन्दिर में, पूजा करने आई थी॥ पास पहुँचकर जो देखा तो आहा! द्वार खुला पाया। जिसकी लगन लगी थी उसके दर्शन का अवसर आया॥

कोयल – सुभद्रा कुमारी चौहान

देखो कोयल काली है पर मीठी है इसकी बोली इसने ही तो कूक कूक कर आमों में मिश्री घोली कोयल कोयल सच बतलाना क्या संदेसा लायी हो बहुत दिनों के बाद आज फिर इस डाली पर आई हो

कलह-कारण – सुभद्रा कुमारी चौहान

कड़ी आराधना करके बुलाया था उन्हें मैंने। पदों को पूजने के ही लिए थी साधना मेरी॥ तपस्या नेम व्रत करके रिझाया था उन्हें मैंने। पधारे देव, पूरी हो गई आराधना मेरी॥

उल्लास – सुभद्रा कुमारी चौहान

शैशव के सुन्दर प्रभात का मैंने नव विकास देखा। यौवन की मादक लाली में जीवन का हुलास देखा।। जग-झंझा-झकोर में आशा-लतिका का विलास देखा। आकांक्षा, उत्साह, प्रेम का क्रम-क्रम से प्रकाश देखा।।

उपेक्षा – सुभद्रा कुमारी चौहान

इस तरह उपेक्षा मेरी,  क्यों करते हो मतवाले! आशा के कितने अंकुर,  मैंने हैं उर में पाले॥ विश्वास-वारि से उनको,  मैंने है सींच बढ़ाए। निर्मल निकुंज में मन के,  रहती हूँ सदा छिपाए॥