हमारे कृषक – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

जेठ हो कि हो पूस, हमारे कृषकों को आराम नहीं है  छूटे कभी संग बैलों का ऐसा कोई याम नहीं है  मुख में जीभ शक्ति भुजा में जीवन में सुख का नाम नहीं है  वसन कहाँ? सूखी रोटी भी मिलती दोनों शाम नहीं है  बैलों के ये बंधू वर्ष भर क्या जाने कैसे जीते हैं  बंधी जीभ, आँखें विषम गम खा शायद आँसू पीते हैं  पर शिशु का क्या, सीख न पाया अभी जो आँसू पीना  चूस-चूस सूखा स्तन माँ का, सो जाता रो-विलप नगीना 

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कलम या कि तलवार – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार  मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली,  दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली 

माध्यम – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

मैं माध्यम हूँ, मौलिक विचार नहीं, कनफ़्युशियस ने कहा । तो मौलिक विचार कहाँ मिलते हैं, खिले हुए फूल ही नए वृन्तों पर दुबारा खिलते हैं ।

व्याल-विजय – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

झूमें झर चरण के नीचे मैं उमंग में गाऊँ. तान, तान, फण व्याल! कि तुझ पर मैं बाँसुरी बजाऊँ।  यह बाँसुरी बजी माया के मुकुलित आकुंचन में, यह बाँसुरी बजी अविनाशी के संदेह गहन में  अस्तित्वों के अनस्तित्व में,महाशांति के तल में, यह बाँसुरी बजी शून्यासन की समाधि निश्चल में। 

अवकाश वाली सभ्यता – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

मैं रात के अँधेरे में सिताओं की ओर देखता हूँ  जिन की रोशनी भविष्य की ओर जाती है अनागत से मुझे यह खबर आती है  की चाहे लाख बदल जाये मगर भारत भारत रहेगा जो ज्योति दुनिया में  बुझी जा रही है वह भारत के दाहिने करतल पर जलेगी  यंत्रों से थकी हुयी धरती  उस रोशनी में चलेगी

रोटी और स्वाधीनता – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ? मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ? आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं, पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं।

जनतन्त्र का जन्म – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,  मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;  दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,  सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।  जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,  जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,  जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे  तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।

सिपाही – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

वनिता की ममता न हुई, सुत का न मुझे कुछ छोह हुआ, ख्याति, सुयश, सम्मान, विभव का, त्यों ही, कभी न मोह हुआ। जीवन की क्या चहल-पहल है, इसे न मैने पहचाना, सेनापति के एक इशारे पर मिटना केवल जाना। मसि की तो क्या बात? गली की ठिकरी मुझे भुलाती है, जीते जी लड़ मरूं, मरे पर याद किसे फिर आती है? इतिहासों में अमर रहूँ, है एसी मृत्यु नहीं मेरी, विश्व छोड़ जब चला, भुलाते लगती फिर किसको देरी?

मेरे नगपति! मेरे विशाल – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

मेरे नगपति! मेरे विशाल! साकार, दिव्य, गौरव विराट्, पौरुष के पुन्जीभूत ज्वाल! मेरी जननी के हिम-किरीट! मेरे भारत के दिव्य भाल! मेरे नगपति! मेरे विशाल!

राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी – रामधारी सिंह ‘दिनकर’

राजा वसन्त वर्षा ऋतुओं की रानी लेकिन दोनों की कितनी भिन्न कहानी राजा के मुख में हँसी कण्ठ में माला रानी का अन्तर द्रवित दृगों में पानी डोलती सुरभि राजा घर कोने कोने परियाँ सेवा में खड़ी सजा कर दोने खोले अंचल रानी व्याकुल सी आई उमड़ी जाने क्या व्यथा लगी वह रोने