तुम और तुम्हारा शहर – रुचिका मान ‘रूह’

एक अरसे पहले तेरे कूचे से निकले थे हम, अरमानों की उलझी हुई गाँठे लिए, बेवजह चलती हुई साँसों के साथ... और देख तो..एक मुद्दत बाद आज लौटे हैं, वैसा का वैसा ही है सब आज भी यहाँ...

Advertisement

नीम से होकर निबोरी बनाते हैं पिता – विकास कुमार

पिता के महत्व को ना कम आंकिय माँ की हर ख़ुशी को पिता से भी बांटिए माँ यदि ममता है तो पिता पुरूषार्थ है पिता बिन जग में ना कोई परमार्थ है हर अर्थ व्यर्थ है यदि पिता असमर्थ है पिता से ही घर का हर कोना समर्थ है

धधक पौरुष की – विकास कुमार

मैं चला उस ओर जिधर सूर्य की किरणें असीम प्रसुप्त पौरुष की रगों में धधकाने ज्वाला असीम विकट हुआ प्रशीतन अब और चुप न रह पाऊंगा

शून्य – विकास कुमार

रह गए हैं कुछ पीले पत्ते अधूरे ख्वाब बुझी  राख उजड़ा जमाना कातिल अकाल औऱ बिखरे तिनके मेरे भीतर मेरे जहन में बहुत अंदर तक। अब मैं मैं नहीं ना ही वो हरे भरे पत्ते हैं न ही वो संजीले ख्वाब हैं

चाँद की कटोरी – कुमार शान्तनु

इस रात मैं फिर तनहा कटोरी से अधूरे चाँद में अधूरे से अपने सपनो को छोटे छोटे जगमगाते तारों के नीचे अपनी आँखों को खोले देख रहा हूँ उस आधे कटोरी से चाँद से अँधेरे की तरह बिखर रहे अपने सपनो को समेट रहा हूँ

मेरा देश – विकास-कुमार

यह अमर कथा है भारत की सृष्टी के श्रेष्ठ विचारक की विश्व गुरु का ज्ञान जहां है स्वर्ण चिड़िया का बखान यहां है कल कल गंगा यहां बहती है चल चल कर यह कुछ कहती है मस्तक पर गिरिराज विराजे  सिंधु स्वम पाँव पखारे  उर पर बहती सरिता सुंदर

मैं चुप हूँ – विकास-कुमार

मैं चुप हूँ चुप ही रहूँगा इंतजार करूँगा उस पल का जब आएगा कोई वहशी मेरे द्वारे मेरे लहू के टुकड़े को

बावरी लड़की – विकास कुमार

इन नयनों के जंगल मेँ एक बावरी लड़की रहती है छूकर कोमल होठों को अधरों की प्यास बुझाती है

हुर्फ – सज सोलापुर

किसीने कहा हर एक के हुर्फ रंग लाते है, कुछ अपने भी लिखलो, हमने भी दिल कि स्याही से कुछ हुर्फ लिख डाले, जो कि हवाओं मे घुल गये, अब शिकायत करे भी तो किससे?, हवाओं से?, हुर्फो से? या दिल से?, तडपने का मौसम गुजरा तो जवाब आया,

फितूर – विकास कुमार

प्रश्नों को , दायरे में ही रहने दो, जो कहते हैं हम  वही तुम होने दो। पथ्थरों को,  पूजती है दुनिया,  तो क्या------- इंसान जो पथ्थर हैं  पथ्थर ही रहने दो।