जनिया, घूम रही हो कहाँ कि पहिने पीत चुनरिया ना। मनवा तड़प रहा है जैसे जल के बिना मछरिया ना। सावन मास मेघ घिरि आये, रिम झिम परत फुहरिया, नाले ताले सब उतराये, भर गई डगर डगरिया। दसों दिशाएँ लोकित होतीं,जब जब बिजुरी चमके घन में, जैसे पूर्ण चन्द्र में चमके, बाला तोर सजनिया ना।
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एकाकी चिड़िया – ज्ञान प्रकाश सिंह
वह छोटी एकाकी चिड़िया बिलकुल हलकी दो अंगुल की परम सुंदरी, पीत वर्ण की मेरे उपवन में है रहती। दिन में इधर उधर उड़ती है संध्या को वापस आ जाती
ख़ुश रखने की कोशिश – ज्ञान प्रकाश सिंह
ख़ुश रखने की कोशिश मैने बहुत की लेकिन ख़फ़ा हो जाते हैं लोग, कुछ बात ऐसी हो जाती। भँवरा उदास है देखकर चमन का सूखा मंजर बिगड़ता क्या बहारों का, अगर थोड़ा ठहर जाती।
ये सड़कें – ज्ञान प्रकाश सिंह
अट्ठाइस चक्के वाले ट्रक चलते सड़कों के सीने पर एक साथ बहुतेरे आते हैं दहाड़ते रौंदा करते तब चिल्लाती हैं ये सड़कें और कभी जब अट्ठहास करते बुलडोजर दौड़ लगाते उनके ऊपर
आँखें फेर सलाम कर लिया – ज्ञान प्रकाश सिंह
तक़ाज़ा हसरतों का था, तमन्नाओं की बेकली, बेख़ुदी में चलते चलते, आ गए उनकी गली, अंदाज़-ए-रवैया कूचे ने बेज़ार कर दिया। लोगों ने आँखें फेर कर सलाम कर लिया।
तरंगिणी – ज्ञान प्रकाश सिंह
निस्तब्ध निशा के अंचल में तारा गण अंकित पट लिपटी, युग तट बंधों के ओट छिपी कलनाद किये बहती जाती। कभी चक्र में, कभी वक्र में लहराती मुड़ती बलखाती, ऋजु रेखा में सरला बनकर मंद मंद मुस्काती चलती।
ख़ामोश लम्हे – ज्ञान प्रकाश सिंह
धुँधलके में लिपटी आई है शाम, इन्तिज़ार की बेचैनी छिपाए हुए, हवाओं में तैरते एहसासों से, तमन्नाओं की लहरें बिखरती रहीं। तन्हाई के लम्हे ख़ामोश थे,शाम-ए-ग़म की फितरत परेशान थी, तस्कीने इज़्तिराब बेहासिल रहा, बेबसी गिर्दो पेश फिरती रही।
मिलन-विरह – ज्ञान प्रकाश सिंह
गहन निशा के मृदु अंचल में, किसी पथिक की स्वर लहरी सा, तेरा अंचल पट लहराता । आँखों की गहरी अरुणाई और नींद से बोझिल पलकें अलसाया सा गात तुम्हारा, क्या बतलातीं उलझी अलकें और याद कर मिलन क्षणों को, संध्या में रवि के ढलने पर, जलने वाले प्रथम दिये सा, तेरा मुख रक्तिम हो उठता ।
ज़िंदगी – ज्ञान प्रकाश सिंह
ज़िंदगी की उलझनों में यों न गुज़रा कीजिये, चंद लम्हे लुत्फ़-ए-क़ुदरत-ए-नज़ारा लीजिये। उन्हें भी साँस लेने को थोड़ी जगह तो दीजिये, हसरत-ए-दिल का गिरीबाँ यों न मसला कीजिये।
बी.एच.यू. की छात्राओं के प्रति – ज्ञान प्रकाश सिंह
वह कौन बैठा है वहाँ, बंशी बजाता चैन की जल रहा उद्यान विद्या का, लेकिन उसे चिंता नहीं। लाठी चार्ज करवाया, निहत्थी छात्राओं पर तुम उस नीरो की बंशी तोड़ यदि देती तो बेहतर था।