बुतशिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रक्खे हैं अपनी यादों में बसा रक्खे हैं दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानो कि जहाँ हमने सनम अपने छिपा रक्खे हैं वहीं गज़नी के खुदा रक्खे हैं
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सुना करो मेरी जाँ – कैफ़ि आज़मी
सुना करो मेरी जाँ इन से उन से अफ़साने सब अजनबी हैं यहाँ कौन किस को पहचाने यहाँ से जल्द गुज़र जाओ क़ाफ़िले वालों हैं मेरी प्यास के फूँके हुए ये वीराने मेरी जुनून-ए-परस्तिश से तंग आ गये लोग सुना है बंद किये जा रहे हैं बुत-ख़ाने
सदियाँ गुजर गयीं – कैफ़ि आज़मी
क्या जाने किसी की प्यास बुझाने किधर गयीं उस सर पे झूम के जो घटाएँ गुज़र गयीं दीवाना पूछता है यह लहरों से बार बार कुछ बस्तियाँ यहाँ थीं बताओ किधर गयीँ
वो भी सराहने लगे अरबाबे-फ़न के बाद – कैफ़ि आज़मी
वो भी सरहाने लगे अरबाबे-फ़न के बाद । दादे-सुख़न मिली मुझे तर्के-सुखन के बाद । दीवानावार चाँद से आगे निकल गए ठहरा न दिल कहीं भी तेरी अंजुमन के बाद ।
वो कभी धूप कभी छाँव लगे – कैफ़ि आज़मी
वो कभी धूप कभी छाँव लगे । मुझे क्या-क्या न मेरा गाँव लगे । किसी पीपल के तले जा बैठे अब भी अपना जो कोई दाँव लगे ।
वतन के लिये – कैफ़ि आज़मी
यही तोहफ़ा है यही नज़राना मैं जो आवारा नज़र लाया हूँ रंग में तेरे मिलाने के लिये क़तरा-ए-ख़ून-ए-जिगर लाया हूँ ऐ गुलाबों के वतन
वक्त ने किया क्या हंसी सितम – कैफ़ि आज़मी
वक्त ने किया क्या हंसी सितम तुम रहे न तुम, हम रहे न हम ।
लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में – कैफ़ि आज़मी
लाई फिर इक लग़्ज़िशे-मस्ताना तेरे शहर में । फिर बनेंगी मस्जिदें मयख़ाना तेरे शहर में । आज फिर टूटेंगी तेरे घर की नाज़ुक खिड़कियाँ आज फिर देखा गया दीवाना तेरे शहर में ।
लश्कर के ज़ुल्म – कैफ़ि आज़मी
दस्तूर क्या ये शहरे-सितमगर के हो गए जो सर उठा के निकले थे बे-सर के हो गए ये शहर तो है आप का, आवाज़ किस की थी देखा जो मुड़ के हमने तो पत्थर के हो गए
बस इक झिझक है यही – कैफ़ि आज़मी
बस इक झिझक है यही हाल-ए-दिल सुनाने में कि तेरा ज़िक्र भी आयेगा इस फ़साने में बरस पड़ी थी जो रुख़ से नक़ाब उठाने में वो चाँदनी है अभी तक मेरे ग़रीब-ख़ाने में