मति मान-सरोवर मंजुल मराल। संभावित समुदाय सभासद वृन्द। भाव कमनीय कंज परम प्रेमिक। नव नव रस लुब्धा भावुक मिलिन्द।1। कृपा कर कहें बर बदनारबिन्द। अनिन्दित छवि धाम नव कलेवर। बासंतिक लता तरु विकच कुसुम। कलित ललित कुंज कल कण्ठ स्वर।2।
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एक विनय – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
बड़े ही ढँगीले बड़े ही निराले। अछूती सभी रंगतों बीच ढाले। दिलों के घरों के कुलों के उँजाले। सुनो ऐ सुजन पूत करतूत वाले। तुम्हीं सब तरह हो हमारे सहारे। तुम्हीं हो नई सूझ आँखों के तारे।1।
आशालता – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
कुछ उरों में एक उपजी है लता। अति अनूठी लहलही कोमल बड़ी। देख कर उसको हरा जी हो गया। वह बताई है गयी जीवन-जड़ी।1।
उलहना – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
वही हैं मिटा देते कितने कसाले। वही हैं बड़ों की बड़ाई सम्हाले। वही हैं बड़े औ भले नाम वाले। वही हैं अँधेरे घरों के उँजाले। सभी जिनकी करतूत होती है ढब की। जो सुनते हैं, बातें ठिकाने की सब की।1।
अभिनव कला – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
प्यार के साथ सुधाधाार पिलाने वाली। जी-कली भाव विविधा संग खिलाने वाली। नागरी-बेलि नवल सींच जिलाने वाली। नीरसों मधय सरसतादि मिलाने वाली। देख लो फिर उगी साहित्य-गगन कर उजला। अति कलित कान्तिमती चारु हरीचन्द कला।1।
उद्बोधन – 1 – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
सज्जनो! देखिए, निज काम बनाना होगा। जाति-भाषा के लिए योग कमाना होगा।1। सामने आके उमग कर के बड़े बीरों लौं। मान हिन्दी का बढ़ा आन निभाना होगा।2। है कठिन कुछ नहीं कठिनाइयाँ करेंगी क्या। फूँक से हमको बलाओं को उड़ाना होगा।3।
हिन्दी भाषा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
पड़ने लगती है पियूष की शिर पर धारा। हो जाता है रुचिर ज्योति मय लोचन-तारा। बर बिनोद की लहर हृदय में है लहराती। कुछ बिजली सी दौड़ सब नसों में है जाती। आते ही मुख पर अति सुखद जिसका पावन नामही। इक्कीस कोटि-जन-पूजिता हिन्दी भाषा है वही।1।
नादान – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
कर सकेंगे क्या वे नादान। बिन सयानपन होते जो हैं बनते बड़े सयान। कौआ कान ले गया सुन जो नहिं टटोलते कान। वे क्यों सोचें तोड़ तरैया लाना है आसान।1। है नादान सदा नादान। काक सुनाता कभी नहीं है कोकिल की सी तान। बक सब काल रहेगा बक ही वही रहेगी बान। उसको होगी नहीं हंस लौं नीर छीर पहचान।2।
एक काठ का टुकड़ा – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जलप्रवाह में एक काठ का टुकड़ा बहता जाता था। उसे देख कर बार बार यह मेरे जी में आता था। पाहन लौं किसलिए उसे भी नहीं डुबाती जल-धारा। एक किसलिए प्रतिद्वन्दी है और दूसरा है प्यारा। मैं विचार में डूबा ही था इतने में यह बात सुनी। जो सुउक्ति कुसुमावलि में से गयी रही रुचि साथ चुनी।
कृतज्ञता – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
माली की डाली के बिकसे कुसुम बिलोक एक बाला। बोली ऐ मति भोले कुसुमो खल से तुम्हें पड़ा पाला। विकसित होते ही वह नित आ तुम्हें तोड़ ले जाता है। उदर-परायणता वश पामर तनिक दया नहिं लाता है