दो बूँदें – जयशंकर प्रसाद

शरद का सुंदर नीलाकाश निशा निखरी, था निर्मल हास बह रही छाया पथ में स्वच्छ सुधा सरिता लेती उच्छ्वास

आज नयन के बँगले में – माखनलाल चतुर्वेदी

आज नयन के बँगले में संकेत पाहुने आये री सखि! जी से उठे कसक पर बैठे और बेसुधी- के बन घूमें युगल-पलक ले चितवन मीठी, पथ-पद-चिह्न चूम, पथ भूले! दीठ डोरियों पर माधव को

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फिर से एक बार मुझे भुला कर देखिए – विकाश कुमार

मोम को आग लगाकर कर देखिए मुझे कभी तो खुद के बराबर देखिए कभी छुप के देखिए मेरे ज़ख्मों को कभी खुद के ज़ख़्म दिखाकर देखिए

बीती विभावरी जाग री – जयशंकर प्रसाद

बीती विभावरी जाग री! अम्बर पनघट में डुबो रही तारा-घट ऊषा नागरी!

मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक – माखनलाल चतुर्वेदी

मधुर-मधुर कुछ गा दो मालिक! प्रलय-प्रणय की मधु-सीमा में जी का विश्व बसा दो मालिक!

दुनिया को जला फ़ना कर दे – विकाश कुमार

दुनिया को जला फ़ना कर दे ईमान को झुकने से मना कर दे मेरे दिल बेशक इश्क़ कर दुनियादारी मगर भूलने से मना कर दे

आह! वेदना मिली विदाई – जयशंकर प्रसाद

आह! वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई छलछल थे संध्या के श्रमकण आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण मेरी यात्रा पर लेती थी नीरवता अनंत अँगड़ाई

ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा – माखनलाल चतुर्वेदी

ऊषा के सँग, पहिन अरुणिमा मेरी सुरत बावली बोली- उतर न सके प्राण सपनों से, मुझे एक सपने में ले ले। मेरा कौन कसाला झेले?

इक्किस दिन – सौरभ मिश्रा (नवकवि )

इक्कीस दिन तक अब इन चारो, दीवारों से यारी है… पहले चिड़ियों की बारी थी अब, इंसानों की बारी है… हाथ मिलाना, गले लगाना, किसी जिस्म को छू लेना… इश्क़ लड़ाना पड़ सकता अब, हम दोनों को भारी है…

चित्राधार – जयशंकर प्रसाद

पुन्य औ पाप न जान्यो जात।
सब तेरे ही काज करत है और न उन्हे सिरात ॥
सखा होय सुभ सीख देत कोउ काहू को मन लाय।
सो तुमरोही काज सँवारत ताकों बड़ो बनाय॥
भारत सिंह शिकारी बन-बन मृगया को आमोद।
सरल जीव की रक्षा तिनसे होत तिहारे गोद॥
स्वारथ औ परमारथ सबही तेरी स्वारथ मीत।
तब इतनी टेढी भृकुटी क्यों? देहु चरण में प्रीत॥