भारति, जय, विजय करे कनक-शस्य-कमल धरे! लंका पदतल-शतदल गर्जितोर्मि सागर-जल धोता शुचि चरण-युगल स्तव कर बहु अर्थ भरे!
Category: सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ (11 फरवरी, 1896 – 15 अक्टूबर, 1961) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेषरुप से कविता के कारण ही है।
सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल 11 संवत 1953 तदनुसार 11 फ़रवरी सन 1896 में हुआ था। उनकी कहानी संग्रह लिली में उनकी जन्मतिथि 21 फ़रवरी 1899 अंकित की गई है। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा 1930 में प्रारंभ हुई। उनका जन्म रविवार को हुआ था इसलिए सुर्जकुमार कहलाए। उनके पिता पंण्डित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले का गढ़कोला नामक गाँव के निवासी थे।
निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बांग्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मुहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में 15 अक्टूबर 1961 को उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।
प्रमुख कृतियाँ
काव्यसंग्रह:- ‘जूही की कली’ कविता की रचना 1916 में की गई। अनामिका (1923), परिमल (1930), गीतिका (1936), द्वितीय अनामिका (1938)। अनामिका के दूसरे भाग में सरोज सम़ृति और राम की शक्तिपूजा जैसे प्रसिद्ध कविताओं का संकलन है। तुलसीदास (1938), कुकुरमुत्ता (1942), अणिमा (1943), बेला (1946), नये पत्ते (1946), अर्चना(1950), आराधना 91953), गीत कुंज (1954), सांध्यकाकली, अपरा, बादल राग[6]।
उपन्यास:- अप्सरा, अलका, प्रभावती (1946), निरुपमा, कुल्ली भाट, बिल्लेसुर बकरिहा।
कहानी संग्रह- लिली, चतुरी चमार, सुकुल की बीवी (1941), सखी, देवी।
निबंध- रवीन्द्र कविता कानन, प्रबंध पद्म, प्रबंध प्रतिमा, चाबुक, चयन, संग्रह।
पुराण कथा- महाभारत
अनुवाद: – आनंद मठ, विष वृक्ष, कृष्णकांत का वसीयतनामा, कपालकुंडला, दुर्गेश नन्दिनी, राज सिंह, राजरानी, देवी चौधरानी, युगलांगुल्य, चन्द्रशेखर, रजनी, श्री रामकृष्ण वचनामृत, भारत में विवेकानंद तथा राजयोग का बांग्ला से हिन्दी में अनुवाद
प्राप्ति – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तुम्हें खोजता था मैं, पा नहीं सका, हवा बन बहीं तुम, जब मैं थका, रुका ।
चुम्बन – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
लहर रही शशिकिरण चूम निर्मल यमुनाजल, चूम सरित की सलिल राशि खिल रहे कुमुद दल कुमुदों के स्मिति-मन्द खुले वे अधर चूम कर, बही वायु स्वछन्द, सकल पथ घूम घूम कर
वर दे, वीणावादिनि वर दे – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
वर दे, वीणावादिनि वर दे ! प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव भारत में भर दे ! काट अंध-उर के बंधन-स्तर बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर; कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर जगमग जग कर दे !
तुम हमारे हो – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
नहीं मालूम क्यों यहाँ आया ठोकरें खाते हुए दिन बीते। उठा तो पर न सँभलने पाया गिरा व रह गया आँसू पीते।
संध्या सुन्दरी – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
दिवसावसान का समय- मेघमय आसमान से उतर रही है वह संध्या-सुन्दरी, परी सी, धीरे, धीरे, धीरे तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास, मधुर-मधुर हैं दोनों उसके अधर, किंतु ज़रा गंभीर, नहीं है उसमें हास-विलास। हँसता है तो केवल तारा एक- गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
भिक्षुक – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
वह आता-- दो टूक कलेजे को करता, पछताता पथ पर आता। पेट पीठ दोनों मिलकर हैं एक, चल रहा लकुटिया टेक, मुट्ठी भर दाने को — भूख मिटाने को मुँह फटी पुरानी झोली का फैलाता — दो टूक कलेजे के करता पछताता पथ पर आता।
राजे ने अपनी रखवाली की – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
राजे ने अपनी रखवाली की; किला बनाकर रहा; बड़ी-बड़ी फ़ौजें रखीं । चापलूस कितने सामन्त आए । मतलब की लकड़ी पकड़े हुए
दीन – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
सह जाते हो उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुश नग्न, हृदय तुम्हारा दुबला होता नग्न, अन्तिम आशा के कानों में स्पन्दित हम - सबके प्राणों में अपने उर की तप्त व्यथाएँ, क्षीण कण्ठ की करुण कथाएँ
मुक्ति – सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला”
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा पत्थर, की निकलो फिर, गंगा-जल-धारा! गृह-गृह की पार्वती! पुनः सत्य-सुन्दर-शिव को सँवारती उर-उर की बनो आरती!-- भ्रान्तों की निश्चल ध्रुवतारा!-- तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा!