सच ये है बेकार हमें ग़म होता है  – जावेद अख़्तर

सच ये है बेकार हमें ग़म होता है  जो चाहा था दुनिया में कम होता है  ढलता सूरज फैला जंगल रस्ता गुम  हमसे पूछो कैसा आलम होता है 

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हम तो बचपन में भी अकेले थे – जावेद अख़्तर

हम तो बचपन में भी अकेले थे सिर्फ़ दिल की गली में खेले थे   इक तरफ़ मोर्चे थे पलकों के  इक तरफ़ आँसुओं के रेले थे 

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं – जावेद अख़्तर

मुझको यक़ीं है सच कहती थीं जो भी अम्मी कहती थीं  जब मेरे बचपन के दिन थे चाँद में परियाँ रहती थीं  एक ये दिन जब अपनों ने भी हमसे नाता तोड़ लिया  एक वो दिन जब पेड़ की शाख़ें बोझ हमारा सहती थीं  एक ये दिन जब सारी सड़कें रूठी-रूठी लगती हैं  एक वो दिन जब 'आओ खेलें' सारी गलियाँ कहती थीं 

दुश्वारी – जावेद अख़्तर

मैं भूल जाऊँ तुम्हें अब यही मुनासिब है  मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ  कि तुम तो फिर भी हक़ीक़त हो कोई ख़्वाब नहीं  यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ 

दोराहा – जावेद अख़्तर

ये जीवन इक राह नहीं इक दोराहा है पहला रस्ता बहुत सरल है इसमें कोई मोड़ नहीं है ये रस्ता इस दुनिया से बेजोड़ नहीं है इस रस्ते पर मिलते हैं रिश्तों के बंधन

ए माँ टेरेसा – जावेद अख़्तर

ए माँ टेरेसा मुझको तेरी अज़मत से इनकार नहीं है जाने कितने सूखे लब और वीराँ आँखें  जाने कितने थके बदन और ज़ख़्मी रूहें

वो ढल रहा है – जावेद अख़्तर

वो ढल रहा है तो ये भी रंगत बदल रही है ज़मीन सूरज की उँगलियों से फिसल रही है जो मुझको ज़िंदा जला रहे हैं वो बेख़बर हैं कि मेरी ज़ंजीर धीरे-धीरे पिघल रही है

बेघर – जावेद अख़्तर

शाम होने को है लाल सूरज समंदर में खोने को है और उसके परे  कुछ परिन्‍दे  क़तारें बनाए उन्‍हीं जंगलों को चले

बहाना ढूँढते रहते हैं  – जावेद अख़्तर

बहाना ढूँढते रहते हैं कोई रोने का हमें ये शौक़ है क्या आस्तीं भिगोने का अगर पलक पे है मोती तो ये नहीं काफ़ी हुनर भी चाहिए अल्फ़ाज़ में पिरोने का

चार क़तऐ  – जावेद अख़्तर

कत्थई आँखों वाली इक लड़की एक ही बात पर बिगड़ती है तुम मुझे क्यों नहीं मिले पहले रोज़ ये कह के मुझ से लड़ती है