एक उम्र के बाद रोया नहीं जाता आँख में रहता है अश्क़, ज़ाया नहीं जाता नींद आती थी कभी अब आती नहीं एक उम्र हुयी ख़्वाबों से वो साया नहीं जाता
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शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा – विकाश कुमार
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी लबों की ख़ामोशी और दिल का शोर आँखों को फेर लेना दूसरी ओर तूफ़ान अंदर और शब्दों का अभाव तुम्हारे कटाक्ष की पीड़ घनघोर शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं – विकाश कुमार
चादरों पर अब सलवटें नहीं पड़ती कपड़े भी इधर उधर बिखरें नहीं ना नयी फ़रमाहिशे हैं हर दिन रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं
सुनो सिंहासन के रखवाले – आलोक पाण्डेय
कह रहा स्तब्धित खड़ा हिमालय, घुटता रो-रो सिंधु का नीर, हे भारत के सेवक जगो, क्यों मौन सुषुप्त पड़े अधीर ! क्रुर प्रहार झंझावातों में, जीवन नैया धीरों की डूब गयी, विस्फोटों को सहते-सहते , जनमानस उद्वेलित अब उब गयी । ले उफान गंगा की व्याकुल धारा , छोड़ किनारा उछल रही ; नर्मदा दुख से आहत हो , युद्ध हेतु दृढ़ सबल दे रही ।
साँझ हुई परदेस में – विकाश कुमार
साँझ हुई परदेस में दिल देश में डूब गया अब इस भागदौड़ से जी अपना ऊब गया वरदान मिलने की चाह नहीं मेहनत का फ़ल ही मिल जाता किसको को क्या मिला यहाँ हिसाब में वक़्त ख़ूब गया
चलते हैं घड़ी के काँटे – विकाश कुमार
चलते हैं घड़ी के काँटे और काँटों पे चलते हम हर दिन जलने के बाद सूरज से ढलते हम
मेरे घर भी दिवाली है – विकाश कुमार
बना कर दिए मिट्टी के ज़रा सी आस पाली है , ख़रीद लो मेहनत मेरी , मेरे घर भी दिवाली है
क्योंकि एक औरत थी वो – शिवम कनोजे
कभी कोख़ में लड़ी थी वो कभी कोख़ से लड़ी थी वो, कभी चंद रुपयों में बिकी थी वो, कभी दहेज़ के नाम पर ख़रीदी गई थी वो, कभी अपने ही घर में बंधी थी वो, तो कभी औरों के घर की बंदी थी वो, कभी औरों ने उसे सिर का ताज बनाया,
आज शर्मसार हूँ – शिवम कनोजे
हाँ, मैं भारतीय हूँ कभी गर्व था इस बात पर, लेकिन आज शर्मिंदा हूँ, हाँ, कभी गर्व करता था, शहादत पर जवानों की, आज बेमतलब हो गयी वो शहादत, औरों से बचाते रहे,इस देश को, पर अपनों ने ही नोंच खाया, आज शर्मसार हूँ, भारतीय होने पर अपने,
मैं समझ नहीं पाया – शिवम कनोजे
आज मैं किसी से मिला, वो बूढ़ेपन की खीझ थी, या देश पर गुस्सा , मैं समझ नहीं पाया।