तेरी निगाहों ने मुझे तेरी चौखट पर पकड़ा मैंने तेरे इश्क़ से बस बचकर निकलने ही वाला था तूने आकर फिर से मेरे ज़ख़्म हरे कर दिए मेरा वक़्त मेरे ज़ख़्म बस भरने ही वाला था
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फिर से एक बार मुझे भुला कर देखिए – विकाश कुमार
मोम को आग लगाकर कर देखिए मुझे कभी तो खुद के बराबर देखिए कभी छुप के देखिए मेरे ज़ख्मों को कभी खुद के ज़ख़्म दिखाकर देखिए
दुनिया को जला फ़ना कर दे – विकाश कुमार
दुनिया को जला फ़ना कर दे ईमान को झुकने से मना कर दे मेरे दिल बेशक इश्क़ कर दुनियादारी मगर भूलने से मना कर दे
इक्किस दिन – सौरभ मिश्रा (नवकवि )
इक्कीस दिन तक अब इन चारो, दीवारों से यारी है… पहले चिड़ियों की बारी थी अब, इंसानों की बारी है… हाथ मिलाना, गले लगाना, किसी जिस्म को छू लेना… इश्क़ लड़ाना पड़ सकता अब, हम दोनों को भारी है…
एक उम्र के बाद रोया नहीं जाता – विकाश कुमार
एक उम्र के बाद रोया नहीं जाता
आँख में रहता है अश्क़, ज़ाया नहीं जाता
नींद आती थी कभी अब आती नहीं
एक उम्र हुयी ख़्वाबों से वो साया नहीं जाता
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा – विकाश कुमार
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा
शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
लबों की ख़ामोशी और दिल का शोर
आँखों को फेर लेना दूसरी ओर
तूफ़ान अंदर और शब्दों का अभाव
तुम्हारे कटाक्ष की पीड़ घनघोर
शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा
शायद तुम कभी समझ नहीं पाओगी
मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं – विकाश कुमार
चादरों पर अब सलवटें नहीं पड़ती
कपड़े भी इधर उधर बिखरें नहीं
ना नयी फ़रमाहिशे हैं हर दिन
रोज़ अब यही कहानी है बच्चों के बिन
क्यूँकि मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं
सुनो सिंहासन के रखवाले – आलोक पाण्डेय
कह रहा स्तब्धित खड़ा हिमालय, घुटता रो-रो सिंधु का नीर,
हे भारत के सेवक जगो, क्यों मौन सुषुप्त पड़े अधीर !
क्रुर प्रहार झंझावातों में, जीवन नैया धीरों की डूब गयी,
विस्फोटों को सहते-सहते , जनमानस उद्वेलित अब उब गयी ।
ले उफान गंगा की व्याकुल धारा , छोड़ किनारा उछल रही ;
नर्मदा दुख से आहत हो , युद्ध हेतु दृढ़ सबल दे रही ।
साँझ हुई परदेस में – विकाश कुमार
साँझ हुई परदेस में
दिल देश में डूब गया
अब इस भागदौड़ से
जी अपना ऊब गया
वरदान मिलने की चाह नहीं
मेहनत का फ़ल ही मिल जाता
किसको को क्या मिला यहाँ
हिसाब में वक़्त ख़ूब गया
चलते हैं घड़ी के काँटे – विकाश कुमार
चलते हैं घड़ी के काँटे
और काँटों पे चलते हम
हर दिन जलने के बाद
सूरज से ढलते हम