भरी दोपहरी
गर्म रेत
तपते मरुथल
बढ़ती पिपासा
मरुधान हैं जिस ओर
रे मन चल उस ओर
घोर अंधेरा
मान घनेरा
सांसे जलती
गति मध्यम सी
ठहराव है जिस ओर
रे मन चल उस ओर
प्रश्न भँवर हैं
उत्तर मौन हैं
चलते राही
उद्देश्य विहीन हैं
सूरज है जिस ओर
रे मन चल उस ओर
रावण हँसता
राम सिमटता
जनता त्रस्त
सत्ता मस्त
सुशासन है जिस ओर
रे मन चल उस ओर।

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।
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नीम से होकर (शीघ्र प्रकाशित होगी)
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