जब भी मुँह ढक लेता हूँ – कुमार विश्वास

जब भी मुँह ढक लेता हूँ
तेरे जुल्फों के छाँव में
कितने गीत उतर आते है
मेरे मन के गाँव में

एक गीत पलकों पर लिखना
एक गीत होंठो पर लिखना
यानि सारी गीत हृदय की
मीठी-सी चोटों पर लिखना
जैसे चुभ जाता है कोई काँटा नँगे पाँव में
ऐसे गीत उतर आते हैं, मेरे मन के गाँव में

पलकें बंद हुई तो जैसे
धरती के उन्माद सो गये
पलकें अगर उठी तो जैसे
बिन बोले संवाद हो गये
जैसे धूप, चुनरिया ओढ़, आ बैठी हो छाँव में
ऐसे गीत उतर आते हैं, मेरे मन के गाँव में

 – कुमार विश्वास

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3 thoughts on “जब भी मुँह ढक लेता हूँ – कुमार विश्वास

  1. अपने ही नग्मों को गाकर दिल बहला‌ लेती हूं
    खुद को ही यादों का एक किस्सा सुना लेती हूं
    हौंसले बुलंद हैं इतने किसी की परवाह नहीं करती
    यारों की रंजिशें अब मुझको रुसवा नहीं करतीं

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