अन्धा कौन ? – विकास कुमार

पार्लियामेंट स्ट्रीट का वो मंजर
सीने मेँ घोँपता जैसे एक  खंजर,
हर एक था जैसे वहाँ बैरिस्टर
पर दिलोँ मेँ कहाँ था उनके मानवता का वो फैक्टर ,
तभी अचानक गुजरी वहाँ से एक वृध्धा,
हाथ मेँ था जिसके लकडी का एक डंडा,
और था – हाथोँ मेँ कुछ बोझ
दिल मेँ लाचारी, और नयनोँ मेँ कुछ सोच,
कभी वो लोगोँ से टकराती,
कभी लोग उससे टकराते,
पर न थे – जो उसे सडक पार कराते,
उसे भी उसके घर पहुँचाते।
उस मंजर ने मेरे दिल को झकझोरा;
और मैँने भी अपनी बिजी जिन्दगी से कुछ वक्त निकाला;
बुढिया का हाथ थामा,
10-20 गज का रास्ता नापा,
और, परिवार मेँ कौन कौन वृध्धा माँ से – पूँछा
दो बेटा – उस वृध्धा के दिल से छलका।
पर बेटा – यहाँ कौन किसका बेटा
वो जो इंसान का इंसान से है नाता
वही तो बनाता है परिवार और बेटा
शायद बहुत कुछ कह गई थी वो वृध्धा’
जीवन की एक सीख दे गई थी वो वृध्धा;
वसुधैव कुटुम्बकम का सही मायने बता गई थी वो वृध्धा;
एक प्रश्न दिल मेँ छोड गई थी वो वृध्धा;
आखिर अन्धा कौन?
वृध्धा, उसके पुत्र या व्यस्त समाज।
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कवि – विकास कुमार

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी  उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।

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