बस कुछ मौन सी खड़ी हो गईं थी मेरे सिरहाने
मौन होकर भी उस रात तुम
बहुत कुछ कहना चाहती थी
पर शायद रात के सन्नाटे को चीरने का
तुम्हारा कोई इरादा न था।
तुम बस उस सर्दी में कंप कंपा कर मौन हो गई थी।
तुम्हारी उस बेबशी पर मैं कुछ बोलने ही वाला था
पर कान में तुम्हारी फुसफुसाहट की ख़ुशबू ने मुझे ,
उस रात तुम आई थीं प्रिये
फड़फड़ाते होठों से जो तुम कहना चाहती थी
वो मेरे भी जहन में था – पर
पर उस पल रुक ही गए थे जज्बात,
जम ही गए थे, जनवरी की उस ठंड मे
उस रात तुम आई थीं प्रिये
अभी भी रह गए हैं मेरे तन में
उन चुम्बनों के घाव
जो देकर गईं थी तुम – उस रात
जो मौन रहने का महत्व समझाया था तुमने
अभी भी ताजा है मेरे जहन में
उसी रात की तरह , जब आईं थी तुम
सोलह श्रंगार करके, जिंदगी का राग अलापने
मौन का महत्व समझाने।
उस रात तुम आई थीं प्रिये

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।
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बहुत खुबसुरत कविता है। विकास जी ।ऐसे ही लिखते रहिए।
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