आज कल दुनिया में
कुछ ऐसा उठ रहा है तूफ़ान,
की बात बात पर “हक़”
मांग बैठता है हर इंसान।
हमारे शर्मा जी ने भी ज़रा ग़ौर फ़रमाया
थोड़ा देखा, सुना
तो समझ आया।
और बोले,
एक समस्या का दूसरी समस्या ही है समाधान,
लेकिन कोई दे नहीं रहा इस बात पे ध्यान।
हमारी सवालों भरी आँखों को देख,
जोश में आये शर्मा जी ने
उधारणों के पुल बांधे,
काफ़ी सारे तो भूल गया
लिख रहा हूँ, बता रहा हूँ,
जो याद हैं, आधे।
एक समस्या है, की तन ढकने को कपड़ा नहीं
और एक समस्या ये भी, की छोटे, फटे, कपडों की आज़ादी नहीं।
अरे भाईसाहब, ज़रा सी बात पे
इतना सोचना क्या है?*
मैं तो कहता हूँ, जो कहना है साफ़-साफ़ बक दो,
इनका कपड़ा काट के उनका तन ढक दो।
किसी के चूल्हे में आग नहीं हैं,
और किसी को cigarette पीने की आज़ादी चाहिए।
शर्मा जी फिर बोले,
मैं कहता हूँ ये मुददा भी खुले* *आम यूँ रख दो,
अगर इतनी ही आग है, थोड़ी उनके चूल्हों में रख दो।
और ये भी सच है
की किसी के पास पीने को पानी नहीं है,
और हक़ न मिले, शराब पीने का हमें, तो फिर वो जवानी नहीं है।
अरे “सरकार” सही कहते हो
यह बात भी साफ़ कर दो,
जो आधा पानी बचा है प्याले में तुम्हारे,
वो प्यासे के गिलास में भर दो।
ऐसी कई और सामस्यायें शर्मा जी ने सुलझायीं थी।
एक आम आदमी होकर,
बड़ी आसान सोच बतायी थी।
हर किसी के पास अपने अपने तर्क हैं
समस्या और समाधान में लेकिन, कहाँ कोई फर्क है।
हमारा तो ऐसा है की,
चलो साफ़ साफ़ बक देते हैं
इतने सवालो में सबके आगे,
कुछ सवाल और रख देते हैं।
क्या इतना मुश्किल होगा यह सब कर पाना?
अपना स्वार्थ छोड़ समस्या को सुलझाना।
छोटी छोटी बातों को,
छोटा ही रहने दो।
बाकी, कहते तो सब हैं,
वैसे शर्मा जी को भी कहने दो।
– कुमार शांतनु / अमीक सरकार
काव्यशाला द्वारा प्रकाशित रचनाएँ
ब हमूत खूब लिखा है |
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