तुम निकले थे घर से
रखकर काँधे पर हल
खलिहानों की ओर
पुरूषार्थ करने
फाड़कर धरती का वक्ष
कीचड़ से जीवन का
सृजन करने
पर उसी कीचड़ में
तुमने आज कोशिश की है
आग बोने की
मत भूलो तुम
इस कीचड़ में ताकत है
तुम्हारे बोये को
गुणित करने की
आज जो तुम
आग बोते हो
क्या फसल काट पाओगे
समेट पाओगे विध्वंसक ज्वालामुखी को?

यह कविता हमारे कवि मंडली के नवकवि विकास कुमार जी की है । वह वित्त मंत्रालय नार्थ ब्लाक दिल्ली में सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं । उनकी दैनिंदिनी में कभी कभी उन्हें लिखने का भी समय मिल जाता है । वैसे तो उनका लेखन किसी वस्तु विशेष के बारे में नहीं रहता मगर न चाहते हुए भी आप उनके लेखन में उनके स्वयं के जीवन अनुभव को महसूस कर सकते हैं । हम आशा करते हैं की आपको उनकी ये कविता पसंद आएगी ।
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waah…..umda lekhan.
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धन्यवाद सर।
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बेहतरीन
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