शहर बदला हम फिर कमाने निकल जाएँगे
घर लौटने में अब ज़माने निकल जाएँगे
अब दफ़्तरों में ही नींद की परियाँ उतरेंगी
खुली आखों से ख़्वाब सुहाने निकल जाएँगे
कुछ चेहरे कुछ यादें, कहीं अनकही बातें
यूँही मोतियों के सारे ख़ज़ाने निकल जाएँगे
चले आएँगे शायद जैसे अब जाना हुआ है
जब याद करने के सारे बहाने निकल जाएँगे
– विकाश कुमार
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घर लौटने में अब ज़माने निकल जाएँगे
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सानवी सरीखी
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कुछ नहीं…
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लेख – काव्य की संरचना
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कुछ बातें हैं…
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हम बे-शहर बे-सहर ही सही
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आइना टाल देता है
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चलते हैं घड़ी के काँटे
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साँझ हुई परदेस में
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मेरे बच्चे अब बड़े हो गए हैं
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शायद मैं कभी समझा नहीं पाउँगा
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एक उम्र के बाद रोया नहीं जाता
Bahut hi badhiya
Lajawaab
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